महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 229 श्लोक 15-25
एकोनत्रिशदधिद्विशततम (229) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
वे सर्वथा शान्त और सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न रहते हैं, न कभी क्रोध करते हैं, न हर्षित होते हैं और न किसी का अपराध ही करते हैं। वे हृदय की अज्ञानमयी गॉठ खोलकर चारों ओर आनन्द के साथ विचरा करते हैं । न उनके कोई भाई-बन्धु होते हैं और न वे ही दूसरों के भाई बन्धु होते हैं । न उनके कोई शत्रु होते हैं और न वे ही किसी के शत्रु होते हैं । जो मनुष्य ऐसा करते हैं, वे सदा सुख से जीवन बिताते हैं । द्विजश्रेष्ठ ! जो धर्म के अनुसार चलते हैं, वे ही धर्मज्ञ हैं । तथा जो धर्ममार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं, उन्हें ही हर्ष-उद्वेग आदि प्राप्त होते हैं । मैंने भी उसी धर्ममार्ग का अवलम्बन किया है; अत: अपनी निन्दा सुनकर क्यों किसी के प्रति द्वेष-दृष्टि करूँ ? अथवा प्रशंसा सुनकर भी किसलिये हर्ष मानॅू ? । मनुष्य निन्दा और प्रशंसा में से जिससे जो-जो लाभ उठाना चाहते हों, उससे वह-वह लाभ उठा लें । उस निन्दा और प्रशंसा से न मेरी कोई हानि होगी, न लाभ । तत्वज्ञ पुरूष को चाहिये कि वह अपमान को अमृत के समान समझकर उससे संतुष्ट हो और विद्वान् मनुष्य सम्मान को विष के तुल्य समझकर उससे सदा डरता रहे । सम्पूर्ण दोषों से मुक्त महात्मा पुरूष अपमानित होनेपर भी इस लोक और परलोक में निर्भय होकर सुख से सोता है; परंतु उसका अपमान करनेवाला पुरूष पापबन्धन में पड़ जाता है । जो मनीषी पुरूष उत्तम गति प्राप्त करना चाहते हैं, वे इस उत्तम व्रत का आश्रय लेकर सुखी एवं अभ्युदयशील होते हैं । मनुष्य को चाहिये कि सारे काम्य–कर्मो का परित्याग करके सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में कर ले । फिर वह प्रकृति से परे अविनाशी ब्रह्रापद को प्राप्त हो जाता है । परमगति को प्राप्त हुए उस ज्ञानी महात्मा के पद का अनुसरण न देवता कर पाते हैं न गन्धर्व, न पिशाच कर पाते हैं और न राक्षस ही । इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में जैगीरषव्य और असित देवल संवाद विषयक दो सौ उनतीसवॉ अध्याय पूरा हुआ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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