महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 238 श्लोक 1-13
अष्टात्रिंशदधिकद्विशततम (238) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
नाना प्रकार के भूतो की समीक्षापूर्वक कर्मतत्व का विवेचन, युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्व व्यास जी कहते हैं – बेटा ! यह ब्राह्राण की अत्यन्त प्राचीनकाल से चली आयी हुई वृत्ति है, जो शास्त्रविहित है । ज्ञानवान् मनुष्य ही सर्वत्र कर्म करता हुआ सिद्धि प्राप्त करता है । यदि कर्म में संशय न हो तो वह सिद्धि देनेवाला होता है। यहाँ संदेह यह होता है कि क्या यह कर्म स्वभावसिद्ध है अथवा ज्ञानजनित ? । उपर्युक्त संशय होने पर यह कहा जाता है कि यदि वह पुरूष के लिये वैदिक विधान के अनुसार कर्तव्य हो तो ज्ञानजन्य है, अन्यथा स्वाभाविक है । मैं युक्ति और फल-प्राप्ति के सहित इस विषय का वर्णन करूँगा, तुम उसे सुनो । कुछ मनुष्य कर्मों में पुरूषार्थ को कारण बताते हैं । कोई-कोई दैव (प्रारब्ध अथवा भावी) की प्रशंसा करते हैं और दूसरे लोग स्वभाव के गुण गाते हैं । कितने ही मनुष्य पुरूषार्थ द्वारा की हुई क्रिया, दैव और कालगत स्वभाव इन तीनों को कारण मानते हैं । कुछ लोग इन्हें पृथक्-पृथक् प्रधानता देते हैं अर्थात् इनमें से एक प्रधान है और दूसरे दो अप्रधान कारण हैं-ऐसा कहते हैं और कुछ लोग इन तीनों को पृथक् न करके इनके समुच्चय कोही कारण बताते है । कुछ कर्मनिष्ठ विचारक घट-पट आदि विषयों के सम्बन्ध कहते हैं कि ‘यह ऐसा ही है ।‘ दूसरे कहते हैं कि ‘यह ऐसा नहीं है ।‘ तीसरों का कहना है कि ‘ये दोनों ही सम्भव हैं अर्थात् यह ऐसा है और नहीं भी है ।‘ अन्य लोग कहते हैं कि ‘ये दोनों ही मत सम्भव नहीं हैं’ परंतु सत्वगुण में स्थित हुए योगी पुरूष सर्वत्र समस्वरूप ब्रह्राको ही कारणरूप में देखते हैं । त्रेता, द्वापर तथा कलियुग के मनुष्य परमार्थ के विषय में संशयशील होते हैं; परंतु सत्ययुग के लोग तपस्वी और सत्वगुणी होने के कारण प्रशान्त (संशयरहित) होते हैं । सत्ययुग में सभी द्विज ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद-इन तीनों में भेददृष्टि नरखते हुए राग-द्वेषको मन से हटाकर तपस्या का आश्रय लेते हैं । जो मनुष्य तपस्यारूप धर्म से संयुक्तहो पूर्णतया संयम का पालन करते हुए सदा तप में ही तत्पर रहता है, वह उसी के द्वारा अपने मन से जिन-जिन कामनाओं को चाहता है, उन सबको प्राप्त कर लेता है । तपस्या से मनुष्य उस ब्रह्राभाव को प्राप्त कर लेता है, जिसमें स्थित होकर वह सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि करता है, अत: ब्रह्राभाव को प्राप्त व्यक्ति समस्त प्राणियों का प्रभु हो जाता है । वह ब्रह्रा वेद के कर्मकाण्डों में गुप्तरूप से प्रतिपादित हुआ हैं; अत: वेदज्ञ विद्वानों द्वारा भी वह अज्ञात ही रहता है । किंतु वेदान्त में उसी ब्रह्रा का स्पष्टरूपसे प्रतिपादन किया गया है और निष्काम कर्मयोग के द्वारा उस ब्रह्रा का साक्षात्कार किया जा सकता है । क्षत्रिय आलम्भ[१] यज्ञ करने वाले होते हैं, वैश्य हविष्यप्रधान यज्ञ करनेवाले माने गये हैं, शुद्र सेवारूप यज्ञ करनेवाले और ब्राह्राण जपयज्ञ करनेवाले होते हैं । क्योंकि ब्राह्राण वेदों के स्वाध्याय से ही कृतकृत्य हो जाता है । वह और कोई कार्य करे या न करे, सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखने वाला होने के कारण ही वह ब्राह्राण कहलाता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आलम्भ के दो अर्थ हैं-स्पर्श और हिंसा । क्षत्रिय नरेश किसी वस्तु का स्पर्श करके अथवा छूकर जो दान देते है, वह आलम्भ कहलाता है । इसी प्रकार वे प्रजा की रक्षा के लिये जो हिंसक जन्तुओं तथा दृष्ट डाकुओं का वध करते हैं, यह भी आलम्भ यज्ञ के अन्तर्गत है ।