महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 248 श्लोक 12-24
अष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततम (248) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
बुद्धिरूप अधिष्ठान में स्थित हुई उदासीनभाव से स्वभावके अनुसार यथासम्भव विषयों की ओर जानेवाली इन्द्रियोंद्वारा मन दीपक का कार्य करताहै अर्थात् जैसे दीपक अपनी प्रभा द्वारा घटादि वस्तुओं को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार मन नेत्र आदि इन्द्रियों द्वारा घट-पट आदि वस्तुओं का दर्शन एवं ग्रहण कराता है। इस जगत् का ऐसा ही परिवर्तन स्वभाव है, ऐसा जाननेवाला ज्ञानी पुरूष कभी मोह में नही पड़ता, हर्ष और शोक नहीं करता तथा ईर्ष्या-द्वेष आदि से रहित रहता है। जो दुष्कर्म परायण और अशुद्ध अन्त:करणवाले हैं, वे अज्ञानी पुरूष अन्यायपूर्वक मनोवांछित विषयों में विचरनेवाली इन्द्रियों द्वारा आत्मा का दर्शन नहीं कर सकते। परंतु जब मनुष्य अपने मन के द्वारा इन्द्रियरूपी की बागडोर को सदा पकडे़ रहकर उन्हें अच्छी तरह काबू में कर लेता है, तब उसे ज्ञान के प्रकाश में आत्मा का दर्शन उसी प्रकार होता है जिस प्रकार दीपक के प्रकाश में किसी वस्तु की आकृति स्पष्ट दिखायी देती है। जैसे अन्धकार दूर हो जानेपर सभी प्राणियों के सामने प्रकाश छा जाता है, उसी प्रकार यह निश्चितरूप से समझ लो कि अज्ञान का नाश होनेपर ही ज्ञानस्वरूप आत्मा का साक्षात्कार होता है। जैसे जलचर पक्षी जल मे विचरता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार मुक्तात्मा योगी संसार में रहकर भी उसके गुण और दोषों से लिपायमान नहीं होता। इसी प्रकार जिसकी बुद्धि शुद्ध है, वह स्त्री, पुत्र आदि सम्बन्धियों में आसक्तन होने के कारण विषयों का सेवन करता हुआ भी किसी प्रकार उनके दोषों से लिप्त नहीं होता है। जो अपने पूर्वकृत कर्मो के संस्कारों का त्याग करके सदा परमात्मा में ही अनुराग रखता है, वह सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मा हो जाता है और विषयों में कभी आसक्त नहीं होता। जीवात्मा कभी बुद्धि की ओर झुकता है और कभी गुणों की ओर । गुण आत्माको नहीं जानते, किंतु आत्मा गुणों को सदा जानता रहता है, क्योंकि वह गुणों की द्रष्टा और यथावत् रूप से स्त्रष्टाभी है । यद्यपि बुद्धि और क्षेत्रज्ञ दोनों ही सूक्ष्म वस्तु हैं, किंतु उन दोनों में यही अन्तर समझो कि बुद्धि दृश्य है और आत्मा द्रष्टा है। इन दोनो में से एक (बुद्धि) तो गुणों की सृष्टि करती है और दूसरा (आत्मा) गुणोंकी सृष्टि नहीं करता है । वे दोनों स्वरूपत: एक दूसरे से पृथक् हैं; परंतु सदा संयुक्त रहते है। जैसे मछली जल से भिन्न है, फिर भी वे एक दूसरे से संयुक्त रहते हैं । जैसे गूलर और उसके कीडे़ एक दूसरे से पृथक् हैं तथापि परस्पर संयुक्त रहते है । उसी प्रकार बुद्धि और क्षेत्रज्ञ को भी समझना चाहिये। जैसे मॅूज में जो सींक है, वह उससे पृथक् है तो भी वे दोनों साथ ही रहते हैं, उसी प्रकार बुद्धि और क्षेत्रज्ञ सर्वथा एक दूसरे से पृथक् होते हुए भी दोनों साथ-साथ और एक दूसरे के आश्रित रहते हैं।
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