महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 264 श्लोक 13-23
चतु:षष्टयधिकद्विशततम (264) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
‘सारांश यह कि उदार का ही अन्न भोजन करना चाहिये; कृपण, श्रोत्रिय एवं केवल सूदखोर का नहीं। जिसमें श्रद्धा नहीं है, एकमात्र वही देवताओं को हविष्य अर्पण करने का अधिकार नहीं रखता है। उसी का अन्न नहीं खाना चाहिए। धर्मज्ञ पुरूष ऐसा ही मानते हैं। ‘अश्रद्धा सबसे बड़ा पाप है और श्रद्धा पाप से छुटकारा दिलाने वाली है। जैसे सांप अपने पुरानी केंचुल को छोड़ देता है, उसी प्रकार श्रद्धालु पुरूष पाप का परित्याग कर देता है। ‘श्रद्धा होने के साथ-ही-साथ पापों से निवृत हो जाना समस्त पवित्राताओं से बढकर है। जिसके शील-सम्बन्धी दोष दूर हो गये हैं, वह श्रद्धालु पुरूष सदा पवित्र ही है। ‘उसे तपस्या द्वारा क्या लेना है ? आचार-व्यवहार अथवा आत्मचिन्तन द्वारा कौन-सा प्रयोजन सिद्ध करना है ? यह पुरूष श्रद्धामय है, जिसकी जैसी सात्त्विकी, राजसी या तामसी श्रद्धा होती है, वह वैसा सात्त्विक, राजस या तामस होता है। ‘धर्म और अर्थ का साक्षात्कार करने वाले सत्पुरूषों ने इसी प्रकार धर्म की व्याख्या की है। हम लोगों ने धर्मदर्शन नामक मुनि से जिज्ञासा प्रकट करने पर उस धर्म का ज्ञान प्राप्त किेया है। महाज्ञानी जाजलि ! तुम इस पर श्रद्धा करो। तदनन्तर इसके अनुसार आचरण करने से तुम्हें परमगति की प्राप्ति होगी। श्रद्धा करने वाला श्रद्धालु पुरूष साक्षात् धर्म का स्वरूप है। जाजले ! जो श्रद्धापूर्वक अपने धर्म पर स्थित है, वही सबसे श्रेष्ठ माना गया है’। भीष्म जी कहते हैं – राजन् ! तदनन्तर थोड़े ही समय में तुलाधार और जाजलि दोनों महाज्ञानी पुरूष परमधाम में जाकर अपने शुभ कर्मों के फलस्वरूप अपने-अपने स्थान को पाकर वहां सुखपूर्वक विहार करने लगे। इस प्रकार तुलाधार ने नाना प्रकार के वक्तव्य विषयों से युक्त उत्तम भाषण किया । उन्होंने सनातन धर्म का भी वर्णन किया। ब्राह्मण जाजलि ने विख्यात प्रभावशाली तुलाधार के वे वचन सुनकर उनके इस तात्पर्य को भलीभांत हृदयंगम किया। कुन्तीनन्दन ! तुलाधार ने जो उपदेश दिया था, वह बहुजनसम्मत अर्थ से युक्त था। उसे सुनकर जाजलि को परम शान्ति प्राप्त हुई। उसे यथावत दृष्टान्तपूर्वक समझाया गया है। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?
« पीछे | आगे » |