महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 279 श्लोक 15-30

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एकोनाशीत्‍यधिकद्विशततम (279) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनाशीत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद

पूर्वकाल की बात है कि वृत्रासुर को ऐश्‍वर्यभ्रष्‍ट हुआ देख शुक्राचार्य ने उससे पूछा- 'दानवराज ! तुम्‍हें देवताओं ने पराजित कर दिया है तो भी आजकल तुम्‍हारे चित्त में किसी प्रकार की व्‍यथा नहीं है; इसका क्‍या कारण है ? वृत्रासुर ने कहा- ब्रह्मन ! मैंने सत्‍य और तप के प्रभाव से जीवों के आवागमन का रहस्‍य निश्चित रूप से जान लिया है इसलिये मैं उसके विषय में हर्ष और शोक नहीं करता हूँ । काल से प्रेरित हुए जीव अपने पापकर्मों के फलस्वरुप विवश होकर नरक में डूबते हैं और पुण्य के फल से वे सब-के-सब स्वर्ग लोक में जाकर वहाँ आनन्द भोगते हैं। ऐसा मनीषी पुरुषों का कथन है । इस प्रकार स्वर्ग अथवा नरक में कर्म फल भोग द्वारा निश्चित समय व्यतीत करके भोगने से बचे हुए कर्म-सहित कालकी प्रेरणा से बारंबार इस संसार में जन्म लेते रहते हैं । कामनाओं के बन्धन में बँधकर विवश हुए कितने ही जीव सहस्त्रों बार तिर्यक्योनि तथा नरक में पड़कर पुनः वहाँ से निकलते हैं । इस प्रकार मैंने सभी जीवो को जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा हुआ देखा है। शास्त्र का भी ऐसा सिद्धान्त है कि जैसा कर्म होता है, वैसा ही फल मिलता है । प्राणी पहले ही सुख-दुःख तथा प्रिय और अप्रिय विषयों में विचरण करके कर्म के अनुसार नरक, तिर्यक्योनि, मनुष्ययोनि अथवा देवयोनि में जाते हैं । समस्त जीव जगत्-विधाता के विधान से ही परिचालित हो सुख-दुःख पाता है और समस्त प्राणी सदा चले हुए मार्ग पर ही चलते हैं । जो काल नाम से प्रसिद्ध एवं सृष्टि और पालन के परम आश्रय हैं, उन परमात्मा का प्रतिपादन करते हुए वृत्रासुरकी बात सुनकर भगवान शुक्राचार्य उससे कहा –‘तात तुम तो बड़े बुद्धिमान हो, फिर ये असुरभाव के विपरीत दोषयुक्त निरर्थक वचन कैसे कह रहे हो ? वृत्रासुर ने कहा— ब्रह्मन् ! आपने तथा दुसरे मनीषी महानुभावों ने यह तो प्रत्यक्ष देखा है कि मैंने पहले विजय के लोभ से बड़ी भारी तपस्या की थी । मैं बल में बहुत बड़ा-चढ़ा था; अतः मैंने अपने तेज से तीनों लोकों पर आक्रमण करके दुसरे प्राणियों को धूलमें मिलाकर उनके उपभोग की गन्ध और रस आदि विविध वस्तुएँ छीन ली थीं । मेरे शरीर से आग की लपटें निकलती थीं और मैं ज्वालामालाओं से घिरकर सदा आकाश में निर्भय विचरता हुआ समस्त प्राणियों कें लिये अजेय हो गया था । भगवन् ! इस प्रकार मैनें तपस्या के प्रभाव से जो ऐश्‍वर्य प्राप्त किया था, वह मेरे अपने ही कर्मों से नष्ट हो गया। तथापि मैं धैर्य धारण करके उसके लिए शोक नहीं करता हूँ । महामनस्वी पुरुषप्रवर देवराज इन्द्र जब युद्ध की इच्छा से मेरे सामने आये, उस समय उनके साथ उन्हीं की सहायता के लिए आये हुए सबके प्रभु भगवान श्रीनारायण हरि का दर्शन किया था । भगवान वैकुण्ठ, पुरुष, अनन्त, शुक्ल, विष्णु, सनातन, मुंजकेष, हरिश्‍मश्रु तथा सम्पूर्ण भूतों के पितामह हैं । भगवन् ! अवश्‍य ही मेरी उस तपस्या का कोई अंश अब भी शेष रह गया है, अतः मैं उस कर्मफल के विषय में प्रश्‍न करना चाहता हूँ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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