महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 282 श्लोक 53-65
द्वयशीत्यधिकद्विशततम (282) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
देवेश्वर! आप ही इस सम्पूर्ण जगत् के परम आश्रय हैं। आप हमारा इस संकट से उद्धार कर दें, इससे बढ़कर हम लोगों पर दूसरा कौन अनुग्रह होगा । ब्रह्माजी ने कहा - जो मनुष्य अपनी बुद्धि की मन्दता से मोहित होकर जल में तुच्छ बुद्धि करके तुम्हारे भीतर थूक, खँखार या मल-मूत्र डालेगा, तुम्हें छोड़कर यह ब्रह्महत्या तुरंत उसी पर चली जायगी और उसी के भीतर निवास करेगी। इस प्रकार तुम लोगों का ब्रह्महत्या से उद्धार हो जायेगा, यह मैं सत्य कहता हूँ । युधिष्ठिर ! तदनन्तर देवराज इन्द्र को छोड़कर वह ब्रह्महत्या जी की आज्ञा से उनके दिये हुए पूर्वोक्त निवास-स्थानों को चली गयी । नरेश्वर ! इस प्रकार इन्द्र को ब्रह्महत्या प्राप्त हुई थी, फिर उन्होंने ब्रह्माजी की आज्ञा लेकर अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया । महाराज ! सुनने में आता है कि इन्द्र को जो ब्रह्महत्या लगी थी, उससे उन्होनें अश्वमेघ यज्ञ करके ही शुद्धि लाभ की थी । पृथ्वीराज ! देवराज इन्द्र ने सहस्त्रों शत्रुओं का वध करके अपनी खोयी हुई राजलक्ष्मी को पाकर अनुपम आनन्द प्राप्त किया । कुन्ती नन्दन ! वृत्रासुर के रक्त से बहुतेरे छत्रक उत्पन्न हुए थे, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिये तथा यज्ञ की दीक्षा लेने वालों के लिये और तपस्वियों के लिये अभक्षणीय है । कुरूनन्दन ! तुम भी इन ब्राह्मणों का सभी अवस्थाओं में प्रिय करो। ये इस पृथ्वी पर देवता के रूप में विख्यात हैं । कुरूकुलभूषण ! इस तरह अमित तेजस्वी देवराज इन्द्र ने अपनी सूक्ष्म बुद्धि से काम लेकर उपायपूर्वक महान असुर वृत्र का वध किया था । कुन्तीकुमार ! जैसे स्वर्गलोक में शत्रुसूदन इन्द्रदेव विजयी हुए थे, उसी प्रकार तुम भी इस पृथ्वी पर किसी से पराजित होने वाले नही हो । जो प्रत्येक पर्व के दिन ब्राह्मणों की सभा में इस कथा का प्रवचन करेंगे, उन्हें किसी प्रकार का पाप नहीं प्राप्त होगा । तात ! इस प्रकार वृत्रासुर के प्रसंग से मैंने तुम्हें यह इन्द्र का अत्यन्त अद्भुत चरित्र सुना दिया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में ब्रह्महत्या का विभाजनविषयक दो सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
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