महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 301 श्लोक 56-74
एकत्रिशततम (301) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
सत्पुरूष क्षमा से क्रोध का, संकल्प के त्याग से काम का, सत्वगुण के सेवन से निद्रा का, प्रमाद के त्याग से भय का तथा अल्पाहार के सेवन द्वारा पांचवे श्वास दोष का नाश होता है । राजन ! भरतनन्दन ! महाबुद्धिमान सांख्य के विद्वान सैकड़ों गुणों के द्वारा गुणों को, सैकड़ों दोषों के द्वारा दोषों को तथा सैकड़ों विचित्र हेतुओं से विचित्र हेतुओं को तत्वत: जानकर व्यापक ज्ञान के प्रभाव से संसार को पानी के फेन के समान नश्वर, विष्णु की सैकड़ों मायाओं से ढँका हुआ, दीवार पर बने हुए चित्र के समान, नरकुल के समान सारहीन, अन्धकार से भरे गड्ढे की भाँति भयंकर, वर्षाकाल के पानी के बुलबुलों के समान क्षणभंगुर, सुखहीन, पराधीन, नष्टप्राय तथा कीचड़ में फँसे हुए हाथी की तरह रजोगुण और तमोगुण में मग्न समझते हैं। इसलिये वे संतान आदि की आसक्ति को दूर करके तपरूप दण्ड से युक्त विवेक रूपी शास्त्र से राजस-तामस अशुभ गन्धों को और सुन्दर शोभनीय सात्विक गन्धों को तथा स्पर्शेन्द्रिय के देहाश्रित भोगों की आसक्ति को शीघ्र ही काट डालते हैं । शत्रुसूदन ! तदनन्तर वे सिद्ध यति प्रज्ञारूपी नौका के द्वारा उस संसार रूपी घोर सागर को तर जाते हैं, जिसमें दुखरूपी जल भरा है। चिन्ता और शोक के बड़े-बड़े कुण्ड हैं। नाना प्रकार के रोग और मृत्यु विशाल ग्राहों के समान हैं । महान भय ही महानागों के समान हैं। तमोगुण कछुए और रजोगुण मछलियाँ हैं। स्नेह ही कीचड़ है। बुढापा ही उससे पार होने में कठिनाई है। ज्ञान ही उसका द्वीप है। नाना प्रकार के कर्मोद्वारा वह अगाध बना हुआ है। सत्य ही उसका तीर है। नियम-व्रत आदि स्थिरता है। हिंसा ही उसका शीघ्रगामी महान वेग है। वह नाना प्रकार के रसों का भण्डार है। अनेक प्रकार की प्रीतियाँ ही उस भवसागर के महारत्न हैं। दुख और संताप ही वहाँ की वायु है। शोक और तृष्णा की बड़ी-बड़ी भँवरें उठती रहती हैं। तीव्र व्याधियां उसके भीतर रहने वाले महान जलहस्ती हैं। हड्डियां ही उसके घाट हैं। कफ फेन हैं। दान मोतियों की राशि हैं। रक्त उसके कुण्ड में रहने वाले मूँगा हैं। हंसना और चिल्लाना ही उस सागर की गम्भीर गर्जना है। अनेक प्रकार के अज्ञान ही इसे अत्यन्त दुस्तर बनाये हुए हैं। रोदनजनित आँसू ही उसमें मलिन खारे जल के समान हैं। आसक्तियों का त्याग ही उसमें परम आश्रय या दूसरा तट है। स्त्री-पुत्र जोंक के समान हैं। मित्र और बन्धु-बान्धव तटवर्ती नगर है। अहिंसा और सत्य उसकी सीमा हैं। प्राणों का परित्याग ही उसकी उताल तरंगे हैं। वेदान्तज्ञान द्वीप है। समस्त प्राणियों के प्रति दयाभाव इसकी जलराशि है। मोक्ष उसमें दुर्लभ विषय है और नाना प्रकार के संताप उस संसार सागर के बड़वानल हैं। भरतनन्दन ! उससे पार होकर वे आकाशस्वरूप निर्मल परब्रह्म में प्रवेश कर जाते हैं । राजन ! उन पुणयात्मा सांख्ययोगी सिद्ध पुरूषों को अपनी रश्मियों द्वारा उनमें प्रविष्ट हुआ सूर्य अर्चिमार्ग से उस ब्रह्मलोक में ले जाने के लिये ऊपर के लोकों में उसी प्रकार वहन करता है, जैसे कमल की नाल सरोवर के जल को खींच लेती है । वहाँ प्रवहनामक वायु-अभिमानी देवता उन वीतराग शक्तिसम्पन्न सिद्ध तपोधन महापुरूषों को सूर्य-अभिमानी देवता से अपने अधिकार में ले लेता है ।
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