महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 302 श्लोक 18-37
द्वयदिकत्रिशततम (302) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
परमेश्वर से उत्पन्न जो सबके अग्रज भगवान हिरण्यगर्भ हैं, ये ही बुद्धि कहे गये हैं। योगशास्त्र में ये ही महान कहे गये हैं। इन्हीं को विरिञ्चि तथा अज भी कहते है । अनेक नाम और रूपों से युक्त इन हिरण्यगर्भ ब्रह्मा का सांख्यशास्त्र में भी वर्णन आता है। ये विचित्र रूपधारी, विश्वात्मा और एकाक्षर कहे गये हैं। इस अनेक रूपोंवाली त्रिलोकी की रचना उन्होंने ही की है और स्वयं ही इसे व्याप्त कर रखा है। इस प्रकार बहुत-से रूप धारण करने के कारण वे विश्वरूप माने गये हैं । वे महातेजस्वी भगवान हिरण्यगर्भ विकार को प्राप्त हो स्वयं ही अहंकार की और उसके अभिमानी प्रजापति विराट की सृष्टि करते हैं । इनमें निराकार से साकार रूप में प्रकट होने वाली मूल प्रकृति को तो विद्यासर्ग कहते हैं और महतत्व एवं अहंकार को अविद्यासर्ग कहते हैं । अविधि (ज्ञान) और विधि (कर्म) की उत्पत्ति भी उस परमात्मा से ही हुई है। श्रुति तथा शास्त्र के अर्थ का विचार करने वाले विद्वानों ने उन्हें विधा और अविधा बतलाया है । पृथ्वीनाथ ! अहंकार से जो सूक्ष्म भूतों की सृष्टि होती है उसे तीसरा सर्ग समझों। सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन प्रकार के अहंकारों से जो चौथी सृष्टि उत्पन्न होती है, उसे वैकृत-सर्ग समझो । आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी– ये पांच महाभूत तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध– ये पांच विषय वैकृत-सर्ग के अन्तर्गत हैं । इन दसों की उत्पति एक ही साथ होती है, इसमें संशय नही है। राजेन्द्र ! पांचवां भौतिक सर्ग समझो। जो प्राणियों के लिये प्रयोजनीय होने के कारण सार्थक है । इस भौतिक सर्ग के अन्तर्गत आँख, कान, नाक, त्वचा और जिह्वा-ये पांच कर्मेन्द्रियां हैं। पृथ्वीनाथ ! मनसहित इन सबकी उत्पति भी एक ही साथ होती है । ये चौबीस तत्व सम्पूर्ण प्राणियों के शरीरों में मौजूद रहते हैं। तत्वदर्शी ब्राह्मण इनके यथार्थ स्वरूप को जानकर कभी शोक नहीं करते हैं । नरश्रेष्ठ ! तीनों लोकों में जितने देहधारी हैं, उन सब में इन्हीं तत्वों के समुदाय को देह समझना चाहिये । देवता, मनुष्य, दानव, यक्ष, भूत, गन्धर्व किन्नर, महासर्प, चारण, पिशाच, देवर्षि, निशाचर, दंश (डंक मारने वाली मक्खी), कीट, मच्छर, दुर्गन्धित कीड़े, चूहैं, कुत्ते, चाण्डाल, हिरन, श्वपाक (कुत्ते का मांस खाने वाला), पुल्कस (म्लेच्छ), हाथी, घोड़े, गधे, सिंह, वृक्ष और गौ आदि के रूप में जो कुछ मूर्तिमान पदार्थ हैं, सर्वत्र इन्हीं तत्वों का दर्शन होता है । पृथ्वी, जल और आकाश में ही देहधारियों का निवास है, और कहीं नहीं; यह विद्वानों का निश्चय है। ऐसा मैंने सुन रखा है । हे तात ! यह सम्पूर्ण पांच भौतिक जगत व्यक्त कहलाता है और प्रतिदिन इसका क्षरण होता है, इसलिये इसको क्षर कहते हैं । इससे भिन्न् जो तत्व है, उसे अक्षर कहा गया है। इस प्रकार उस अव्यक्त अक्षर से उत्पन्न हुआ यह व्यक्त संज्ञक मोहात्मक जगत क्षरित होने के कारण क्षर नाम धारण करता है । क्षर-तत्वों में सबसे पहले महतत्व की ही सृष्टि हुई है। यह बात सदा ध्यान में रखने योग्य है। यही क्षर का परिचय है। महाराज ! तुमने जो मुझसे पूछा था, उसके अनुसार यह मैंने तुम्हारे समक्ष क्षर-अक्षर के विषय का वर्णन किया है ।
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