महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 305 श्लोक 16-30
पञ्चाधिकत्रिशततम (305) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जो स्थूल एवं मन्दबुद्धि से युक्त होने के कारण विद्वानों की सभा में शास्त्रग्रन्थ का अर्थ नहीं बता सकता, वह निर्णयपूर्वक उस ग्रन्थ का तात्पर्य कैसे कह सकता है ? जिसका चित् शास्त्रज्ञान से शून्य है, वह ग्रन्थ के तात्पर्य का ठीक-ठीक निर्णय कर ही नहीं सकता । यदि वह कुछ कहता है तो मनस्वी होने पर भी लोगों के उपहास का पात्र बनता है । इसलिये राजेन्द्र ! सांख्य और योग के ज्ञाता महात्मा पुरूषों के मत में मोक्ष का जैसा स्वरूप देखा जाता है, उसे मैं तुम्हें यथार्थरूप से बताता हूँ, सुनो । योगी जिस तत्व का साक्षात्कार करते हैं; सांख्वेता विद्वान भी उसी का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जो सांख्य और योग को फल की दृष्टि से एक समझता है, वही बुद्धिमान है । तात ! तुम मुझसे कह चुके हो कि शरीर में जो त्वचा, मांस, रूधिर, मेदा, पित्त, मज्जा, स्नायु और इन्द्रियसमुदाय हैं (वे सब माता-पिता के संबंध से प्रकट हुए हैं) । जैसे बीज से बीज की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार द्रव्य से द्रव्य, इन्द्रिय से इन्द्रिय तथा देह से देह की प्राप्ति होती है । परंतु परमात्मा तो इन्द्रिय, बीज, द्रव्य और देह से रहित तथा निर्गुण है; अत: उसमें गुण कैसे हो सकते हैं । जैसे आकाश आदि गुण सत्व आदि गुणों से उत्पन्न होते और उन्हीं में लीन हो जाते हैं; उसी प्रकार सत्व, रज, तम – ये तीनों गुण भी प्रकृति से उत्पन्न होते और उसी में लीन होते हैं । राजन ! तुम यह जान लो कि त्वचा, मांस, रूधिर, मेदा, पित्त, मज्जा, अस्थि और स्नायु – ये आठों वस्तुएं वीर्य से उत्पन्न हुई हैं; इसलिये प्राकृत ही हैं । पुरूष और प्रकृति –ये दो तत्व हैं। इनके स्वरूप को व्यक्त करने वाले जो तीन प्रकार के सात्विक, राजस और तामस चिन्ह हैं, वे सब प्राकृत माने गये हैं; परंतु जो लिंगी अर्थात इन सबका आधार आत्मा है, वह न पुरूष कहा जा सकता है और न प्रकृति ही। वह इन दोनों से विलक्षण है। जैसे फूलों और फलों द्वारा सदा निराकार ॠतुओं का अनुमान हो जाता है, उसी प्रकार निराकार पुरूष का संयोग पाकर अपने द्वारा उत्पन्न किये हुए जो महतत्व आदि लिंग हैं, उन्हीं के द्वारा प्रकृति अनुमान का विषय होती है । इसी प्रकार लिंग से भिन्न जो शुद्ध चेतनरूप आत्मा है, वह भी अनुमान से बोध का विषय होता है अर्थात जैसे दृश्य को प्रकाशित करने के कारण सूर्य दृश्य से भिन्न है, उसी प्रकार ज्ञान-स्वरूप आत्मा भी ज्ञेय वस्तुओं को प्रकाशित करने के कारण उनसे भिन्न सत्ता रखता है। तात ! वही पचीसवाँ तत्व है, जो सभी लिंगों में नियतरूप से व्याप्त है । आत्मा तो जन्म-मृत्यु से रहित, अनन्त, सबका द्रष्टा और निर्विकार है। वह सत्व आदि गुणों में केवल अभिमान करने के कारण ही गुणस्वरूप कहलाता है । गुण तो गुणवान में ही रहते हैं। निर्गुण आत्मा में गुण कैसे रह सकते है। अत: गुणों के स्वरूप को जानने वाले विद्वान पुरूषों का यही सिद्धान्त है कि जब जीवात्मा इन गुणों को प्रकृति का कार्य मानकर उनमें अपनेपन का अभिमान त्याग देता है, उस समय वह देह आदि में आत्मबुद्धि का परित्याग करके अपने विशुद्ध परमात्मस्वरूप का साक्षात्कार करता है ।
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