महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 307 श्लोक 31-48
सप्ताधिकात्रिशततम (307) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
‘जो मेरे साथ संयुक्त होकर मेरी समानता करने लगी है, ऐसी इस प्रकृति के साथ मैं मूर्खतावश सहवास कैसे कर सकता हूँ ? यह लो, अब मैं स्थिर हो रहा हूँ ।‘मैं निर्विकार होकर भी इस विकारमयी प्रकृति के द्वारा ठगा गया। इतने समय तक इसने मेरे साथ ठगी की है। इसलिये अब इसके साथ नहीं रहूँगा । ‘किंतु यह इसका अपराध नहीं है, सारा अपराध मेरा ही है; जो कि मैं परमात्मा से विमुख होकर इसमें आसक्त हुआ स्थित रहा । ‘यद्यपि मैं सर्वथा अमूर्त हूँ अर्थात् किसी आकार-वाला नहीं हूँ तो भी मैं प्रकृति की अनेक रूपवाली मूर्तियों में स्थित हुआ देररहित होकर भी ममता से परास्त होने के कारण देहधारी बना रहा । ‘पहले जो मैंने इसके प्रति ममता की थी, उसके कारण मुझे भिन्न–भिन्न योनियों में भटकना पड़ा। यद्यपि मैं ममतारहित हूँ तो भी इस प्रकृतिजनित ममता ने भिन्न–भिन्न योनियों में मुझे डालकर मेरी बड़ी दुर्दशा कर डाली । ‘इसके साथ नाना प्रकार की योनियों में भटकने के कारण मेरी चेतना खो गयी थी। अब इस अहंकारमयी प्रकृति से मेरा कोई काम नहीं है । ‘अब भी यह बहुत-से रूप धारण करके मेरे साथ संयोग की चेष्टा कर रही है; किंतु अब मैं सावधान हो गया हूँ, इसलिये ममता और अहंकार से रहित हो गया हूँ ।‘अब तो इसको और इसकी अहंकारस्वरूपिणी ममता को त्यागकर इससे सर्वथा अतीत होकर मैं निरामय परमात्मा की शरण लूँगा । ‘उन परमात्मा की ही समानता प्राप्त करूँगा। इस जड प्रकृति की समानता नहीं धारण करूँगा। परमात्मा के साथ संयोग करने में ही मेरा कल्याण है। इस प्रकृति के साथ नहीं । ‘इस प्रकार उत्तम विवेक के द्वारा अपने शुद्व स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर चौबीस तत्वों से परे पचीसवाँ आत्मा क्षरभाव (विनाशीलता) का त्याग करके निरामय आक्षरभाव को प्राप्त होता है । ‘मिथिलानरेश ! अव्यक्त प्रकृति, व्यक्त महतत्ववादि, सगुण (जडवर्ग), निर्गुण (आत्मा) तथा सब के आदिभूत निर्गुण परमात्मा का साक्षात्कार करके मनुष्य स्वयं भी वैसा ही हो जाता है । राजन् ! वेद में जैसा वर्णन किया गया है, उसके अनुरूप यह क्षर-अक्षर का विवेक कराने वाला ज्ञान मैंने तुम्हें सुनाया है। अब पुन: श्रुति के अनुसार संदेहरहित, सूक्ष्म तथा अत्यन्त निर्मल विशिष्ट ज्ञान की बात तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो । मैंने सांख्य और योग का जो वर्णन किया है, उसमें इन दोनों को पृथक्-पृथक् दो शास्त्र बताया है; परंतु वास्तव में जो सांख्यशास्त्र है, वही योगशास्त्र भी है (क्योंकि दोनों का फल एक ही है) । पृथ्वीनाथ ! मैंने शिष्यों के हित की कामना से उनके लिये ज्ञानजनक जो सांख्यदर्शन हे, उसका तुम्हारे निकट स्पष्टरूप से वर्णन किया है । विद्वान् पुरूषों का कहना है कि यह सांख्यशास्त्र महान् है। इस शास्त्र में, योगशास्त्र में तथा वेद में अधिक प्रामाणिकता समझकर मनुष्य को इनके अध्ययन के लिये आगे बढ़ना चाहिये । नरेश्वर ! सांख्यशास्त्र के आचार्य पचीसवें तत्व से परे और किसी तत्व का वर्णन नहीं करते हैं। यह मैंने सांख्यों के परम तत्व का यथावत् रूप से वर्णन किया है । जो नित्य ज्ञानसम्पन्न पर ब्रह्मा परमात्मा है, वही बुद्ध है तथा जो परमात्म तत्व को न जानने के कारण जिज्ञासु जीवात्मा है, उसकी ‘बुध्यमान’ संज्ञा होती है। इस प्रकार योग के सिद्वान्त के अनुसार बुद्ध (नित्य ज्ञानसम्पन्न परमात्मा) और बुध्यमान (जिज्ञासु जीव)- ये दो चेतन माने गये हैं ।
इस प्रकार श्री महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में सांख्यतत्व का वर्णनविषयक तीन सो सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ।
« पीछे | आगे » |