महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 321 श्लोक 72-86

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एकविंशत्‍यधिकत्रिशततम (321) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकविंशत्‍यधिकत्रिशततम अध्‍याय: श्लोक 72-86 का हिन्दी अनुवाद

बेटा ! जब तुम्‍हें एक दिन मरना ही है, तब धन,बन्‍धु और पुत्र आदि से तुम्‍हें क्‍या लेना है; अत: तुम हृदय रूपी गुफा में छिपे हुए आत्‍मतत्‍व का अनुसंधान करो। सोचो तो सही; आज तुम्‍हारे सारे पूर्वज—पितामह कहाँ चले गये ? जो काम कल करना हो, उसे आज ही कर लेना चाहिए और जो दोपहर-बाद करना हो, उसे पहले ही पहर में पूरा कर डालना चाहिये; क्‍योंकि मौत यह नहीं देखति कि इसका काम पूरा हुआ है या नहीं। मृत्‍यु बाद भाई-बन्‍धु, कुटुम्‍बी और सुहृद् श्‍मशान-भूमि तक पीछे-पीछे जाते हैं और मृत पुरूष के शरीर को चिता की आग में डालकर लौट आते हैं। अत: तुम परमात्‍मतत्‍व की प्राप्ति के इच्‍छुक हो आलस्‍य छोड़कर नास्तिक, निर्दय तथा पापबुद्धि मनुष्‍यों को बिना किसी हिचक के बायें कर दो—कभी भूलकर भी उनका साथ न दो। इस प्रकार जब सारा संसार काल से आहत और पीडित हो रहा है, तब तुम महान् धैर्य का आश्रय ले सम्‍पूर्ण हृदय से धर्म का आचरण करो। जो मनुष्‍य परमात्‍मा के साक्षात्‍कार के इस साधन को भली-भाँति जानता है, वह इस लोक में स्‍वधर्म का ठीक-ठीक पालन करके परलोक में सुख भोगता है। जो ऐसा जानते हैं कि शरीर का नाश हो जाने पर भी अपनी मृत्‍यु नहीं होती है और शिष्‍ट पुरूषों द्वारा पालित धर्म-मार्ग पर चलने वालों का कभी नाश नहीं होता है, वे ही बुद्धिमान् हैं । जो इन सब बातों को सोच-विचार कर धर्म को बढ़ाता रहता है, वह विद्वान् है । जो धर्म से गिर जाता है, वहीं मोहग्रस्‍त अथवा मूढ़ है। कर्म के मार्ग पर प्रयोग (आचरण) में लाये गये जो अपने शुभाशुभ कर्म हैं , उनका फल कर्ता को उस कर्म के अनुसार प्राप्‍त होता है । नीच कर्म करने वाला नरक में पड़ता है और धर्माचरण में पारगंत पुरूष स्‍वर्ग लोक को जाता है। यह दुर्लभ मानव-शरीर स्‍वर्गलोक मे पहुँचने के लिये सीढ़ी के समान है । इसे पाकर अपने-आपको इस प्रकार धर्म के एकाग्र करे, जिससे फिर उसे स्‍वर्ग से नीचे न गिरना पड़े। स्‍वर्गलोक के मार्ग का अनुसरण करने वाली जिसकी बुद्धि धर्म का कभी उल्‍लंघन नहीं करती, उसको पुण्‍यात्‍मा कहते हैं । वह पुत्रों और बन्‍धु-बान्‍धवों के लिये कदापि शोचनीय नहीं है। जिसकी बुद्धि दूषित न होकर दृढ़ निश्‍चय का सहारा लेती है, उसने स्‍वर्ग में अपने लिये स्‍थान बना लिया है । उसे नरक का महान् भय नहीं प्राप्‍त होता है। जो लोग तपोवनों में पैदा हुए और वहीं मृत्‍यु को प्राप्‍त हो गये, उन्‍हें थोड़े-से ही धर्म की प्राप्ति होती है; क्‍यो‍कि वे काम-भोगों को जानते ही नही थे (अत: उन्‍हें त्‍यागने के लिये उनको कष्‍ट सहन नहीं करना पड़ता)। जो भोगों का परित्‍याग करके तपोवन में जाकर शरीर से तपस्‍या करता है, उसके लिये कोई ऐसी वस्‍तु नहीं, जो प्राप्‍त न हो । वही फल मुझे अधिक जान पड़ता है। हजारों माता-पिता और सैकड़ों स्‍त्री-पुत्र पहले जन्‍मों में हो चुके हैं और भविष्‍य में होंगे । वे हममें से किसके हैं और हम उनमें से किसके हैं ? मैं अकेला हूँ । न तो दूसरा कोई मेरा है औ न मैं दूसरे किसी का हूँ । मैं ऐसे किसी पुरूष को नहीं देखता, जिसका मैं होऊँ तथा ऐसा भी कोई नहीं दिखायी देता, जो मेरा हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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