महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 325 श्लोक 1-18
पंचविंशत्यधिकत्रिशततम (325) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
पिता की आज्ञा से शुकदेवजी का मिथिला में जाना और वहाँ उनका द्वारपाल, मन्त्री और युवती स्त्रियों द्वारा सत्कृत होने के उपरान्त ध्यान में स्थित हो जाना
भीष्मजी कहते हैं—युधिष्ठिर ! शुकदेवजी मोक्ष का विचार करते हुए ही अपने पिता एवं गुरू व्यासजी के पास गये और विनीतभाव से उनके चरणों में प्रणाम करके कल्याण-प्राप्ति की इच्छा रखकर उनसे इस प्रकार बोले—‘प्रभो ! आप मोक्षधर्म में कुशल हैं; अत: मुझे ऐसा उपदेश कीजिये,जिससे मेरे चित्त को परम शान्ति मिले’। पुत्र की वह बात सुनकर महर्षि व्यास ने कहा, ‘बेटा ! तुम मोक्ष तथा अन्यान्य विविध धर्मों का अध्ययन करो’। भारत ! पिता की आज्ञा से धर्मात्माओं में श्रेष्ठ शुक ने सम्पूर्ण योगशास्त्र तथा समस्त सांख्य का अध्ययन किया। जब व्यासजी ने यह समझ लिया कि मेरा पुत्र ब्रह्मा तेज से सम्पन्न और मोक्षधर्म में कुशल हो गया है तथा समस्त शास्त्रों में इसकी ब्रह्मा के समान गति हो गयी है, तब उन्होंने कहा —‘बेटा ! अब तुम मिथिला के राजा जनक के पास जाओ । वे मिथिलानरेश तुम्हें सम्पूर्ण मोक्षशास्त्र का सार सिद्धान्त बता देंगे’। नरेश्वर ! पिता की आज्ञा पाकर शुकदेवजी धर्म की निष्ठा और मोक्ष का परम आश्रय पूछने के लिये मिथिला की ओर चल दिये। जाते समय व्यासजी ने फिर बिना किसी विस्मय के कहा—‘बेटा ! जिस मार्ग से साधारण मनुष्य चलते हों, उसी से तुम भी जाना । अपनी योगशक्ति का आश्रय लेकर आकाश मार्ग से कदापि यात्रा न करना। ‘सरल भाव से यात्रा करनी चाहिये । रास्ते में सुख और सुविधा की खोज नहीं करनी चाहिये । विशेष-विशेष व्यक्तियों अथवा स्थानों का अनुसंधान न करना; क्योंकि इससे उनके पति आसक्ति हो जाती है। ‘राजा जनक मेरे यजमान हैं, ऐसा समझ कर उनके प्रति अहंकार न प्रकट करना तथा सब प्रकार से उनकी आज्ञा के अधीन रहना । वे तुम्हारी सब शंकाओं का समाधान कर देंगे। ‘मेरे यजमान राजा जनक धर्मनिपुण तथा मोक्ष-शास्त्र में प्रवीण हैं । वे तुम्हें जो आज्ञा दें, उसी का नि:शंक होकर पालन करना’। पिता के ऐसा कहने पर धर्मात्मा मुनि शुकदेवजी मिथिला की ओर चल दिये । यद्यपि वे आकाश मार्ग से सारी पृथ्वी को लाँघ जाने में समर्थ थे, तो भी पैदल ही चले। मार्ग में उन्हें अनेक पर्वत, नदी तीर्थ और सरोवर पार करने पडे़ बहुत-से सर्पों और वन्य पशुओं से भरे हुए कितने ही जंगलों में होकर जाना पड़ा । उन सबको लाँघकर क्रमश: मेरू (इलावृत) वर्ष, हरिवर्ष और हैमवत (किम्पुरूष) वर्ष को पार करते हुए वे भारतवर्ष में आये। चीन और हूण जाति के लोगों से सेवित नाना प्रकार के देशों का दर्शन करते हुए महामुनि शुकदेवजी इस आर्यावर्त देश में आ पहुँचे। पिता की आज्ञा मानकर उसी ज्ञातव्य विषय का चिन्तन करते हुए उन्होंने सारा मार्ग पैदल ही तै किया । जैसे आकाशचारी पक्षी आकाश में विचरता है, उसी प्रकार वे भूतल पर विचरण करते थे। रास्ते में बडे़ सुन्दर-सुन्दर शहर और कस्बे तथा समृद्धिशाली नगर दिखायी पडे़ । भाँति-भाँति के विचित्र रत्न दृष्टिगोचर हुए; किंतु शुकदेवजी उनकी ओर देखते हुए भी नहीं देखते थे। पथिक शुकदेवजी ने बहुत-से मनोहर उद्यान तथा घर और मन्दिर देखकर उनकी उपेक्षा कर दी । कितने ही पवित्र रत्न उनके सामने पडे़, परंतु वे सबको लाँघ कर आगे बढ़ गये।
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