महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 339 श्लोक 21-41
एकोनचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (339) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
‘जो नेत्रों से देखा नहीं जाता, त्वचा से जिसका स्पर्श नहीं होता, गन्ध ग्रहण करने वाली घ्राणेन्द्रिय से जो सूँघने में नहीं आता, जो रसनेन्द्रिय की पहुँच से परे है; सत्त्व, रज और तम नामक गुण जिसपर कोई प्रभाव नहीं डाल पाते, जो सर्वव्यापी, साक्षी और सम्पूर्ण जगत् का आत्मा कहलाता है, सम्पूर्ण प्राणियों का नाश हो जाने पर भी जो स्वयं नष्ट नहीं होता है, जिसे अजन्मा, नित्य, सनातन, निर्गुण और निष्कल बताया गया है, जो चैबीस तत्त्वों से परे पचीसवें तत्त्व के रूप में विश्यात है, जिसे अन्तर्यामी पुरुष, निष्क्रिय तथा ज्ञानमय नेखें से ही देखने योग्य बताया जाता है, जिसमें प्रवेशकरके श्रेष्ठद्विज यहाँ मुक्त हो जाते हैं, वही सनातन परमात्मा है। उसी को वासुदेव नाम से जानना चाहिये। ‘नारद ! उस परमात्मदेव का महात्म्य और महिमा तो देखो, जो शुभाशुभ कर्मों से कभी लिप्त नहीं होता है। ‘सत्त्व, रज और तम - ये तीन गुण बताये जाते हैं, जो सम्पूर्ण शरीरों में स्थित रहेते हैं और विचरते हैं।। ‘इन गुणों को ज्ञेत्रज्ञ स्वयं भेगता है, किंतु इन गुणों के द्वारा वह क्षेत्रज्ञ भोगा नहीं जाता; क्योंकि वह निर्गुण, गुणों का भोक्ता, गुणों का स्रष्टा तथा गुणों से उत्कृष्ट है। ‘देवर्षे ! यह सम्पूर्ण जगत् जिसपर प्रतिष्ठित है, वह पृथ्वी जल में विलीन हो जाती है। जल का तेज में और तेज का वायु में लय होता है। ‘वायु का आकाश में लय होता है, आकाश का मन में विलीन होता है। मन उत्कृष्ट भूत है। वह अव्यक्त प्रकृति में लीन होता है। ‘ब्रह्मन् ! अव्यक्त का निष्क्रिय पुरुष में लय होता है। उस सनातन पुरुष से उत्कृष्ट दूसरी कोई वस्तु नहीं है। ‘संसार में उस एकमात्र सनातन पुरुष वासुदेव को छोड़कर केई भी चराचर भूत नित्य नहीं है। ‘महाबली वासुदेव सम्पूर्ण भूतों के आत्मा हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश - ये पाँच महाभूत हैं।। ‘वे सब महाभूत एक साथ मिलकर ही शरीर नाम धारण करते हैं। ब्रह्मन् ! उस समय अदृश्य भाव से जो शीघ्रगामी चेतन उसमे प्रवेश करता है, वही जीवात्मा है। ‘उसका शरीर में प्रवेश करना ही उत्पन्न होना बताया जाता है। वही शरीर को चेष्टाशील बनाता है। वही इसे संचालन में समर्थ है। कहीं भी पाँचों भूतों के मिलित समुदाय के बिना कोई शरीर नहीं होता। ‘ब्रह्मन् ! जीव के बिना प्राणवायु चेष्टा नहीं करती। वह जीव ही शेष या भगवान् संकर्षण कहा गया है। ‘जो उसी संकर्षण अथवा जीव से उत्पन्न होकर अपने कर्म (ध्यान, पूजन आदि) के द्वारा सनत्कुमारत्व (जीवन्मुकित) प्रापत कर लेता है, जिसमें समस्त प्राणी लय एवं क्षय को प्रापत होते हैं, वह सम्पूर्ण भूतों का मन ही ‘प्रद्युम्न’ कहलाता है। ‘उस प्रद्युम्न से जिसकी उत्पत्ति हुई है, वह (अहंकार ही) तन्मात्रा आदि का कर्ता, परम्परा-सम्बन्ध से महाभूतों का कारण तािा महत्तत्त्व को कार्य है। ‘उसी से समस्त चराचर जगत् की उत्पत्ति होती है। वही ‘अनिरूद्ध’ एवं ‘इंशान’ कहलाता है। वह (कत्र्तव्य के अभिमानरूप से) सम्पूर्ण कर्मों में व्यक्त होता है। ‘राजेन्द्र ! जो भगवान् वासुदेव क्षेत्रज्ञस्वरूप एवं निर्गुणरूप से जानने योग्य बताये गये हैं, वे ही प्रभावशाली संकर्षणरूप जीवात्मा हैं। संकर्षण से प्रद्युम्न का प्रादुर्भाव हुआ है, जो मनोमय कहलाते हैं। प्रद्युम्न से जो अनिरूद्ध प्रकट हुए हैं, वे ही अहंकार और ईश्वर हैं।
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