महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 344 श्लोक 20-27
चतुश्चत्वारिंशदधिकत्रिशततम (344) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
द्विजश्रेष्ठ ! हम दोनों भी धर्म के घर में अवतीर्ण हो इस रमणीय बदरिकाश्रमतीर्थ का आश्रय ले कठोर तपस्या में संलग्न हैं। ब्रह्मन् ! उन्हीं भगवान परमदेव परमात्मा के तीनों लोकों में जो द्रेवप्रिय अवतार होने वाले हैं, उनका सदा ही परम मंगल हो- यही हमारी इस तपस्या का उद्देश्य है। द्विजोत्तम ! हम दोनों ने पूर्ववत् अपने कर्म में संलग्न हो सर्वोत्तम एवं सम्पूर्ण कठिनाइयों से युक्त उत्तम व्रत में तत्पर रहते हुए ही श्वेतद्वीप में उपसिथत होकर वहाँ तुम्हें देखा था। तपोधन ! तुम वहाँ भगवान से मिले और उनके साथ वार्तालाप किया। ये सारी बातें हम दोनों को अच्छी तरह विदित है। महामुने ! चराचर प्राणियों ाहित तीनों लोकों में जो शुभ या अशुभ बात हो चुकी है, हो रही है, अथवा होने वाली है, वह सब उस समय देवदेव भगवान श्रीहरि ने तुमसे कही थी।
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! कठोर तपस्या में लगे हुए भगवान नर और नारायण की यह बात सुनकर नारदजी ने उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और नारायण की शरण लेकर उन्हीं की आराधना में लग गये। उन्होंने नारायण सम्बन्धी बहुत से मन्त्रों का विधिपूर्वक जप किया और एक सहस्त्र दिव्य वर्षों तक वे नर-नारायण के आश्रय में रहे। महातेजस्वी भगवान नारद मुनि प्रतिदिन उन्हीं भगवान वासुदेव की तथा उन देानों नर और नारायण की भी आराधना करते हुए वहाँ रहने लगे।
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