महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 86 श्लोक 15-33
षडशीतितम (86) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
आचार्य, ऋत्विज्, पुरोहित और महान् धनुर्धरों का तथा घर बनाने वालों का, वर्षफल बताने वाले ज्यौंतिषियों का और वैधों का यत्नपूर्वक सत्कार करे। विद्वान्, बुद्धिमान्, जितेन्द्रिय, कार्यकुशल, शूर, बहुज्ञ, कुलीन तथा साहस और धैर्यं से सम्पन्न पुरूषों को यथायोग्य समस्त कर्मों में लगावें राजा को चाहिये कि धार्मिक पुरूषों का सत्कार करें और पापियों को दण्ड दे। सभी वर्णों को प्रयत्नपूर्वक अपने-अपने कर्मों में लगावे। गुप्तचरों द्वारा नगर तथा छोटे ग्रामों के बाहरी और भीतरी समाचारों को अच्छी तरह जानकर फिर उसके अनुसार कार्य करे। गुप्तचरों से मिलनें, गुप्त सलाह करने, खजाने की जाँच-पड़ताल करने तथा विशेषतः अपराधियों को दण्ड देने का कार्यं राजा स्वयं करे; क्योंकि इन्हीं पर सारा राज्य प्रतिष्ठित हैं। राजा को गुप्तचर रूपी नेत्रों के द्वारा देखकर सदा इस बात की जानकारी रखनी चाहिये कि मेरे शत्रु, मित्र तथा तटस्थ व्यक्ति नगर और छोटे ग्रामों में कब क्या करना चाहते है? उनकी चेष्टाएँ जान लेने के पश्चात् उनके प्रतीकार के लिये सारा कार्य बड़ी सावधानी के साथ करना चाहिये। राजा को उचित है कि वह अपने भक्तों का सदा आदर करें और द्वेष रखने वालों को कैद कर ले। उसे प्रतिदिन नाना प्रकार के यज्ञ करना तथा दूसरों को कष्ट न पहुँचाते हुए दान देना चाहिये। वह प्रजाजनों की रक्षा करे और कोई भी कार्य ऐसा न करे जिससें धर्मं में बाधा आती हो। दीन, अनाथ, वृद्ध तथा विधवा स्त्रियों के योगक्षेम एवं जीविका का सदा ही प्रबन्ध करे। राजा आश्रमों में यथासमय वस्त्र, बर्तन और भोजन आदि सामग्री सदा ही भेजा करे, तथा सबको सत्कार, पूजन एवं सम्मानपूर्वक वे वस्तुएँ अर्पित करे। अपने राज्य में जो तपस्वी हों, उन्हें अपने शरीर-सम्बन्धी, सम्पूर्ण कार्यसम्बन्धी तथा राष्ट्रसम्बन्धी समाचार प्रयत्नपूर्वक बताया करे और उनके सामने सदा विनीत भाव से रहे। जिसने सम्पूर्ण स्वार्थों का परित्याग कर दिया हैं, ऐसे कुलीन एवं बहुश्रुत विद्वान् तपस्वी को देखकर राजा शय्या, आसन और भोजन देकर उसका सम्मान करे। कैसी भी आपत्ति का समय क्यों न हो? राजा को तो तपस्वी पर विश्वास करना ही चाहिये; क्योंकि चोर और डाकू भी तपस्वी महात्माओं पर विश्वास करते हैं। राजा उस तपस्वी के निकट अपने धन की निधियों को रखे और उससे सलाह भी लिया करे; परंतु बार-बार उसके पास जाना-आना और उसका संग न करे, तथा उसका अधिक सम्मान भी न करे (अर्थात् गुप्तरूप से ही उसकी सेवा और सम्मान करे। लोगों पर इस बात को प्रकट न होने दे)। राजा अपने राज्य में, दूसरों के राज्यों में, जंगलों में तथा अपने अधीन राजाओं के नगरों में भी एक-एक भिन्न-भिन्न तपस्वी को अपना सुहृद् बनाये रखे। उन सबको सत्कार और सम्मान के साथ आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करे। जैसे अपने राज्य के तपस्वी का आदर करे, वैसे ही दूसरे राज्यों तथा जंगलों में रहने वाले तापसों का भी सम्मान करना चाहिये। वे उत्तम व्रत का पालन करने वाले तपस्वी शरणार्थी राजा को किसी भर अवस्था में इच्छानुसार शरण दे सकते हैं। युधिष्ठिर! तुम्हारे प्रश्न के अनुसार राजा को स्वयं जैसे नगर में निवास करना चाहिये, उसका लक्षण मैंने यहाँ संक्षेप से बताया हैं।
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