महाभारत सभा पर्व अध्याय 23 श्लोक 15-29

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त्रयोविंश (23) अध्‍याय: सभा पर्व (जरासंधवध पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: त्रयोविंश अध्याय: श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद

फिर एक दूसरे के हाथ दबाकर वे दोनों दो गजराजों की भाँति गर्जने लगे। दोनों ही भुजाओं से प्रहार करते हुए मेघ के समान गम्भीर स्वर में सिंहनाद करने लगे । थप्पड़ों की मार खाकर वे परस्पर घूर-घूरकर देखते और अत्यन्त क्रोध में भरे हुए दो सिंहों के समान एक दूसरे को खींच-खाँचकर लड़ने लगे । उस समय दोनों अपने अंगों और भुजाओं से प्रतिद्वन्द्वी के शरीर को दबाकर शत्रु की पीठ में अपने गले की हँसली भिड़ाकर उसके पेट को दोनों बाँहों से कर लेते और उठाकर दूसर फैंकते थे । इसी प्रकार कमर में और बगल में भी हाथ लगाकर दोनों प्रतिद्वन्द्वदी को पछाड़ने की चेष्टा करते थे। अपने शरीर को सिकोड़कर शत्रु की पकड़ से छूट जाने की कला दोनों जानते थे। दोनों ही मल्लयुद्ध की शिक्षा में प्रवीध थे। वे उदर के नीचे हाथ लगाकर दोनों हाथों से पेट को लपेट लेते और विपक्षी को कण्ठ एवं छाती तक ऊँचे उठाकर धरती पर मारते थे । फिर वे सारी मर्यादाओं से ऊँचे उठे हुए ‘पूष्ठ भंग’ नामक दाँव पेंच से कमा लेने लगे (अर्थात् एक दूसरे की पीठ को धरती से लगा देने की चेष्टा में लग गये)। दोनों भुजाओं से सम्पूर्ण मूर्च्छा (उदर आदि में आघात करके मूर्च्छित करने का प्रयत्न) तथा पूर्वोक्त पूर्ण कुम्भ का प्रयोग करने लगे । तदनन्तर वे अपनी इच्छा के अनुसार ‘तृणपीड’ (रस्सी बनाने के लिये बटे जाने वाले तिनकों की भाँति हाथ पैर आदि को ऐंठना) तथा मुष्टि का घात सहित पूर्णयोग (मुक्के को एक अंग में मारने की चेष्टा दिखाकर दूसरे अंग में आघात करना) आदि युद्ध के दाँव पेंचों का प्रयोग एक दूसरे पर करने लगे । जनमेजय! उस समय उनका मल्लयुद्ध देखने के लिये हजारों पुरवासी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्रियाँ एवं वृद्ध इकठ्ठे हो गये। मनुष्यों की अपार भीड़ से वह स्थान ठसाठस भर गया । उन दोनों की भुजाओं के आघात से तथा एक दूसरे के निग्रह-प्र्रग्रह[१] से ऐसा भयंकर चटचट शब्द होता था, मानों वज्र और पर्वत परस्पर टकरा रहे हों । बलवानों में रेष्ठ वे दोनों वीर अत्यन्त हर्ष एवं उत्साह में भरे हुए थे ओर एक दूसरे की दुर्बलता या असावधानी पर दृष्टि रखते हुए परस्पर बलपूर्वक जिय पाने की इच्दा रखते थे । राजन्! उस समर भूमि में, जहाँ वृत्रासुर ओर इन्द्र की की भाँति उन दोनों बलवान् वीरों में संघर्ष छिड़ा था, ऐसा भयंकर युद्ध हुआ कि दर्शक लोग दूर भाग खड़े हुए । वे एक दूसरे को पीछे टकेलते और आगे खींचते थे। बार बार खींचतान और छीना-झपटी कतरे थे। दोनों ने अपने प्रहार से एक दूरे के शरीर में खरौंच एवं घाव पैदा कर दिये और दोनों दोनों को पटकर कर घुटनों से मारने तथा रगड़ने लगे । फिर बड़े भारी गर्जन-तर्जन के द्वारा आपस में डाँट बताते हुए एक दूसरे पर ऐसे प्रहार करने लगे मानों पत्थरों की वर्षा कर रहे हों । दोनों की छाती चौड़ीा और भुजाएं बड़ी-बड़ी थीं। दोनों ही मल्लयुद्ध में कुशल थे और लोहे की परिघ जैसी मोटी भुजाओं को भिड़ाकर आपस में गुँथ जाते थे । कार्तिक मास के पहले दिन उन दोनों का युद्ध प्रारम्भ हुआ और दिन रात बिना खाये पिये अविराम गति से चलता रहा ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दोनों हाथों से शत्रु का कंधा पकड़कर खींचने और उसे नीचे मुख गिराने की चेष्टा का नाम ‘नग्रिह’ है तथा शत्रु को उत्तान गिरा देने के लिये उसके पैरों को पकड़कर खींचना ‘प्रग्रह’ कहलाता है।

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