महाभारत सभा पर्व अध्याय 31 श्लोक 43-70
एकत्रिंश (31) अध्याय: सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)
विभावसो! आप ही चित्रभानु, सुरेश और अनल कहलाते हैं। आप सदा स्वर्गद्वार का स्पर्श करते हैं। आप आहुति दिये हुए पदार्थों को खाते हैं, इसलिये हुताशन हैं। प्रज्वलित होने से ज्वलन और शिखा (लपट) धारण करने से शिखी हैं। आप ही वैश्वानर, पिंगेश, प्लवंग और भूरितेजस् नाम धारण करते हैं। आपने ही कुमार कार्तिकेय को जन्म दिया है, आप ही ऐश्वर्यसम्पन्न होने के कारण भगवान हैं। श्रीरुद्र वीर्य धारण करने से आप रुद्रर्गीा कहलाते हैं। सुवर्ण के उत्पादक होने से आपका नाम हिरण्यकृत है। आप अग्नि मुझे तेज दें, वायुदेव प्राणशक्तित प्रदान करें, पृथ्वी मुझ में बल का आधान करें और जल मुझे कल्याण प्रदान करें। जल को प्रकट करने वाले महान् शक्ति सम्पन्न जातवेदा सुरेश्वर अग्निदेव! आप देवताओं के मुख है, अपने सत्य के प्रभाव से आप मुझे पवित्र कीजिये। ऋषि, ब्राह्मण, देवता तथा असुर भी सदा यज्ञ करते समय आप में आहुति डालते हैं, अपने सत्य के प्रभाव से आप मुझे पवित्र करें। देव! धूम आपका ध्वज है, आप शिखा धारण करने वाले हैं, वायु से आपका प्राकट्य हुआ है। आप समस्त पापों के नाशक हैं। सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर आप सदा विराजमान हैं। अपने सत्य के प्रभाव से आप मुझे पवित्र कीजिये। भगवन्! मैंने पवित्र होकर प्रेमभाव से आपका इस प्रकार स्तवन किया है। अग्निदेव! आप मुण्े तुष्टि, पुष्टि, श्रवण-शक्ति एवं शास्त्रज्ञान और प्रीति प्रदान करें। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! जो द्विज इस प्रकार इन श्लोक रूप आग्रेय मंत्रों का पाठ करते हुए (अन्त में स्वाहा बोलकर) भगवान अग्निदेव को आहुति समर्पित करता है, वह सदा समृद्धिशाली और जितेन्द्रिय होकर सब पापों से मुक्त हो जाता है। सहदेव बोले- हव्यवाहन! आपको यज्ञ में यह विघ्न नहीं डालना चाहिये। भारत! ऐसा कहकर नरश्रेष्ठ माद्रीकुमार सहदेव धरती पर कुश बिछाकर अपनी भयभीत और उद्विग्न सेना के अग्रभाग में विधिपूर्वक अग्नि के सम्मुख धरना देकर बैठ गये। जैसे महासागर अपनी तटीाूमि का उल्लंघन नहीं करता, उसी प्रकार अग्निदेेव सहदेव को लाँघकर उनकी सेना में नहीं गये। वे कुरुकुल को आनन्दित करने वाले नरदेव सहदेव के पास धीरे-धीरे आकर उन्हें सान्त्वना देते हुए यह वचन बोले- ‘कौरव्य! उठो, उठो, मैंने यह तुम्हारी परीक्षा की है। तुम्हारे और धर्मपुत्र युधिष्ठिर के सम्पूर्ण अभिप्राय को मैं जानता हूँ। परंतु भरतसत्तम! राजा नील के कुल में जब तक उनकी वंशपरम्परा चलती रहेगी, तब तक मुण्े इस माहिष्मतीपुरी की रक्षा करनी होगी। पाण्डुकुमार! साथ ही मैं तुम्हारा मनोरथ भी पूर्ण करूँगा’। भरतश्रेष्ठ! जनमेजय! यह सुनकर माद्रीकुमार सहदेव प्रसन्नचित हो वहाँ से उठे ओर हाथ जोड़कर एवं सिर झुकाकर उन्होंने अग्निदेव का पूजन किया। अग्नि के लौट जाने पर उन्हीं की आज्ञा से राजा नील उस समय वहाँ आये और उन्होंने योद्धाओं के अधिपति पुरुसिंह सहदेव का सत्कारपूर्वक पूजन किया। राजा नील की वह पूजा ग्रहण कर और उन पर कर लगाकर विजयी माद्रीकुमार सहदेव दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गये। फिर त्रिपुरी के राजा अमितौजा को वश में करके महाबाहु सहदेव ने पौरवेश्वर को वेगपूर्वक बंदी बना लिया। तदनन्तर बड़े भारी प्रयत्न के द्वारा विशाल भुजाओं वाले माद्रीकुमार ने सुराष्ट्रदेश के अधिपति कौशिकाचार्य आकृति को वश में किया। महाराज! सुराष्ट्र में ही ठहरकर धर्मात्मा सहदेव ने भोजकट निवासी रुक्मी तथा विशाल राज्य के अधिपति परम बुद्धिमान साक्षात इन्द्रसखा भीष्मक के पास दूत भेजा। पुत्र सहित भीष्मक ने वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण की ओर दृष्टि रखकर प्रेमपूर्वक ही सहदेव का शासन स्वीकार कर लिया। तदनन्तर योद्धाओं के अधिपति सहदेव वहाँ से रत्नों की भेंट लेकर पुन: आगे बढ़ गये। महाबलशाली महातेजस्वी माद्रीकुमार ने शूर्पारक और तालाकट नामक देशों को जीतते हुए दण्डकारण्य को अपने अधीन कर लिया। तत्पश्चात समुद्र के द्विपों में निवास करने वाले म्लेच्छजातीय राजाओं, निषादों तथा राक्षसों, कर्णप्रावरणों[१] को भी परास्त किया। कालमुख नाम से प्रसिद्ध जो मनुष्य और राक्षस दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए योद्धा थे, उन पर भी विजय प्राप्त की। समूचे कोलगिरि, सुरभीपत्तन, ताम्रद्वीप, रामकपर्वत तथा तिमिंगिल नरेश को भी अपने वश में करके परम बुद्धिमान सहदेव ने एक पैर के पुरुषों, केरलों, वनवासियों, संजयन्ती नगरी तथा पाखण्ड और करहाटक देशों का दूतों द्वारा संदेश देकर ही अपने अधीन कर लिया और उन सबसे कर वूसल किया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो अपने कानों से ही शरीर को ढक लें उनहें ‘कर्णप्रावरण’ कहते हैं। प्राचीन काल में ऐसी जाति के लोग थे, जिनके कान पैरों तक लटकते थे।