महाभारत सभा पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-25

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चतुस्त्रिंश (34) अध्‍याय: सभा पर्व (राजसूय पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर के यज्ञ में देश के राजाओं, कौरवों तथा यादवों का आगमन और उन सबके भोजन-विश्राम आदि की सुव्यवस्था

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! युद्धविजयी पाण्डुकुमार नकुल ने हस्तिनापुर में जाकर भीष्म और धृतराष्ट्र को निमन्त्रित किया। तत्पश्चात उन्होंने बड़े सत्कार के साथ आचार्य आदि को भी न्यौता दिया। वे सब लोग बड़े प्रसन्न मन से ब्राह्मणों को आगे करके उस यज्ञ में गये। भरतकुल भूषण! यज्ञवेत्ता धर्मराज का यज्ञ सुनकर अन्य सैकड़ों मनुष्य भी संतुष्ट हृदय से वहाँ गये। भारत! धर्मराज युधिष्ठिर और उनकी सभा को देखने के लिये सम्पूर्ण दिशाओं सभी क्षत्रिय वहाँ नाना प्रकार के बहुमूल्य रत्नों की भेंट लेकर आये। धृतराष्ट्र, भीष्म, महाबुद्धिमान विदुर, दुर्योधन आदि सभी भाई, गान्धारराज सुबल, महाबली शकुनि, अचल, वृषक, रथियों में रेष्ठ कर्ण, बलवान् राजा शल्य, महाबली वाह्विक, सोमदत्त, कुरुनन्दन भूरि, भूरिश्रवा, शल, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, सिन्धुराज जयद्रथ, पुत्रों सहि द्रुपद, राजा शल्व, प्राग्ज्येतिषपुर के रेश महारथी भगदत्त, जिनके साथ समुद्र के टापुओं में रहने वाले सब जातियों के म्लेच्छ भी थे, पर्वतीय नृपतिगण, राजा वृहद्बल, पौण्ड्रक वासुदेव, वंगदेश के राजा, कलिंग नरेश, आकर्ष, कुन्तल, मालव, आन्ध्र, द्राविड़ और सिंहल देश के नरेशगण, काश्मीर नरेश, महातेजस्वी कुन्तिभोज, राजा गौरवाहन, वाह्विक, दूसरे शूर नृपतिगण, अपने दोनों पुत्रों के साथ विराट, महाबली मावेल्ल तथा नाना जनपदों के शासक राजा एवं राजकुमार उस यज्ञ में पधारे थे। भारत! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के उस यज्ञ में रणदुर्मद महापराक्रमी राजा शिशुपाल भी अपने पुत्र के साथ आया था। इसके सिवा बलराम, अनिरुद्ध, कल्क, सारण, गद्द, प्रद्युम्न, साम्ब, पराक्रमी चारुदेष्ण, उल्मुक, निशठ, वीर अंगावह तथा अन्य सभी वृष्णिवंशी महारथी उस यज्ञ में आये थे। ये तथा दूसरे भी बहुत से मध्यदेशीय नरेश पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के राजसूय महायज्ञ में सम्मिलित हुए थे। धर्मराज की आज्ञा से प्रबन्धकों ने उनके ठहरने के लिये उत्तम भवन दिये, जो बहुत अधिक भोजन सामग्री से सम्पन्न थे। राजन्! उन घरों के भीतर स्नान के लिये बावलियाँ बनी थीं और वे भाँति भाँति के वृक्षों से भी सुशोभित थे। धर्मपुत्र युधिष्ठिर उन सभी महात्मा नरेशों का स्वागत सत्कार करते थे। उनसे सम्मानित हो उन्हीं के बताये हुए विभिन्न भवनों में जाकर राजा लोग ठहरते थे। वे सभी भवन कैलासशिखर के समान ऊँचे और भव्य थे। नाना प्रकार के द्रत्रयों से विभूषित एवं मनोहर थे। वे भव्य भवन सब ओर से सुन्दर, सफेद और ऊँचे परकोटों द्वारा घिरे हुए थे। उनमें सोने की झालरें लगी थीं। उनके आँगन के फर्श में मणि एवं रत्न जड़े हुए थे। उनमें सूखपूर्वक ऊपर चढ़ने के लिये सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। उन महलों के भीतर बहुमूल्य एवं बड़े-बड़े आसन तथा अन्य आवश्यक सामान थे। उन घरों को मालाओं से सजाया गया था। उनमें उत्तम अगुरु की सुगन्ध व्याप्त हो रही थी। वे सभी अतिथि भवन हंस और चन्द्रमा के समान सफेद थे। एक योजन दूर से ही वे अच्छी तरह दिखायी देने लगते थे। उनमें स्थान की संकीर्णता या तंगी नहीं थी। सबके दरवाजे बराबर थे। वे सभी गृह विभिन्न गुणों (सुख सुविधाओं) से युक्त थे। उनकी दीवारों अने प्रकार की धातुाअें से वित्रित थीं तथा वे हिमालय के शिखरों की भाँति सुशोभित हो रहे थे। वहाँ विश्राम करने के अनन्तर वे भूमिपाल बहुत दक्षिणा देने वाले एवं बहुतेरे सदस्यों से घिरे हुए धर्मराज युधिष्ठिर से मिले। जनमेजय! उस समय राजाओं, ब्राह्मणों तथा महर्षियों से भरा हुआ वह यज्ञमण्डल देवताओं से भरे पूरे स्वर्गलोक के समान शोभा पा रहा था।

इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व के अन्तर्गत राजसूयज्ञपर्व में निमन्त्रित राजाओं का आगमन विषयक चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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