महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 15
अष्टात्रिंश (38) अध्याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)
उन्हीं दिनों महात्मा जनक के यहाँ धनुष रूा हो रहा था, उसमें श्रीराम ने भगवान शंकर के महान् धनुष को खेल खेल में ही तोड़ डाला। तदनन्तर सीताजी के साथ विवाह करके रघुनाथजी अयौध्यापुरी में लौट आये और वहां सीताजी के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे। कुछ काल के पश्चात पिता की आज्ञा पाकर वे अपनी विमाता महारानी कैकेयी का प्रिय करने की इच्छा से वन में चले गये। वहाँ सब धर्मों के ज्ञाता और समस्त प्राणियों के हितस में तत्पर श्रीरामचन्द्रजी ने लक्ष्मण के साथ चौदह वर्षों तक वन में निवास किया। भरतवंशी राजन्! चौदह वर्षों तक उन्होंन वन में तपस्यापूर्वक जीवन बिताया। उनके साथ उनी अत्यन्त रूपवती धर्मपत्नी भी थीं, जिन्हें लोग सीता कहते थे। अवतार के पहले श्री विष्णु रूप में रहते समय भगवान के साथ उनकी जो योग्यतमा भार्या लक्ष्मी रहा करती हैं, उन्होंने ही उपयुक्त होने के कारण श्रीरामावतार के समय सीता के रूप में अवतीर्ण हो अपने पतिदेव का अनुसरण किया था। भगवान श्रीराम जनस्थान में रहकर देवताओं के कार्य सिद्ध करते थे। धर्मात्मा श्रीराम ने प्रजाजनों के हित की कामना से भयानक कर्म करने वाले चौदह हजार राक्षसों का वध किया। जिनमें मारीच, खर-दूषण और त्रिशिरा आदि प्रधान थे। उन्हीं दिनों दो शापग्रस्त गन्धर्व कू्ररकर्मा राक्षसों के रूप में वहाँ रहते थे, जिनके नाम विराध और कबन्ध थे। श्रीराम ने उन दोनों का भी संहार कर डाला। उन्होंने रावण की बहिन शूर्पणखा की नाक भी लक्ष्मण के द्वारा कटवा दी, इसी के कारण (राक्षसों के षड्यन्त्र से) उन्हें पत्नी का वियोग देखना पड़ा। तब वे सीता की खोज करते हुए वन में विचरन ने लगे। तदनन्तर ऋष्यमूक पर्वत पर जा पम्पासरोवर को लाँघकर श्रीराम जी सुग्रीव और हनुमानजी से मिले और उन दोनों के साथ उन्होंने मैत्री स्थापित कर ली। तत्पश्चात श्रीरामचन्द्रजी ने सुग्रीव के साथ किष्किन्धा में जाकर महाबली वानरराज बाली को युद्ध में मारा और सुग्रीव को वानरों के राजा के पद पर अभिषिक्त कर दिया। राजन्! तदनन्दर पराक्रमी श्रीराम सीता जी के लिये उत्सुक्त हो बड़ी उतावली के साथ उनकी खोज कराने लगे। वायुपुत्र हुनुमानजी ने पता लगाकर यह बतलाया कि सीताजी लंका में हैं। तब समुद्र पर पुल बाँधकर वानरों सहित श्रीराम ने सीताजी के स्थान का पता लगाते हुए लंका में प्रवेश किया। वहाँ देवता, नागगण, यक्ष, राक्षस तथा पक्षियों के लिये अवध्य और युद्ध में दुर्जय राक्षसराज रावण करोड़ों राक्षसों के साथ रहता था। वह देखने में खान से खोदकर निकाले हुए कोयले के ढेर के समान जान पड़ता था। देवताओं के लिये उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी कठिन था। ब्रह्माजी से वरदान मिलने से उसका घमंड बहुत बढ़ गया था। श्रीराम ने त्रिलोकी के लिये कण्टक रूप महाबली विशालकाय वीर रावण को उसके मन्त्रियों और वंशजों सहित युद्ध में मार डाला। इस प्रकार सम्पूर्ण भूतों के स्वामी श्रीरघुनाथ जी ने प्राचीन काल में रावण को सेवकों सहित मारकर लंका के राज्य पर राक्षपति महात्मा विभीषण का अभिषेक करके उन्हें वहीं अमरत्व प्रदान किया। पाण्डुनन्दन! तत्पश्चात श्रीरान ने पुष्पक विमान पर आरूढ़ हो सीता को साथ ले दलबल सहित अपनी राजधानी में जाकर धर्मपूर्वक राज्य का पालन किया। राजन्! उन्हीं दिनों मथुरा में मधु का पुत्र लवण नामक दानव राज्य करता था, जिसे रामचन्द्रजी की आज्ञा से शत्रुघ्न ने मार डाला।
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