महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 22
अष्टात्रिंश (38) अध्याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)
भगवान श्रीकृष्ण ने गदा और परिघ के युद्ध में तथा सम्पूर्ण अस्त्र षस्त्रों के ज्ञान में सबसे श्रेष्ठ स्थान प्राप्त कर लिया। वे समस्त लोकों में विख्यात हो गये। तात युधिष्ठिर! भोज राजकुमार कंस की अस्त्र ज्ञान, बल और पराक्रम में कार्तवीर्य अर्जुन की समानता करता था। भोजवंस के राज्य की वृद्धि करने वाले भोज राजकुमार कंस से भूमण्डल के सब राजा उसी प्रकार दिद्वग्र रहेत थे, जैसे गरुड़ से सर्प। भरतनन्दन! उसके यहाँ धनुष, खंग और चमचमाते हुए भाले लेकर विचित्र प्रकार से युद्ध करने वाले एक करोड़ पैदल सैनिक थे। भोज रा के रथी सैनिक, जिनके रथों पर सुवर्णमय ध्वज फहराते रहते थे तथा जो शूरवीर होने के साथ ही युद्ध में कभी पीठ दिखलाने वाले नहीं थे, आठ लाख की संख्या में थे। युधिष्ठिर! कंस के यहाँ युद्ध से कभी पीछे न हटने वाले हाथी सवार भी आठ ही लाख थे। उनके हाथियों की पीठ पर सुवर्ण के चमकीले हौदे कसे होते थे। भोजराज के वे पर्वताकार गजराज विचित्र ध्वजा पताकाओं से सुशोभिात होते थे और सदा संतुष्ट रहते थे। युद्धिष्ठिर! भोजराज कंस के यहाँ आभूषणों से सजी हुई शीघ्रगामिनी हथिनियों की विशाल सेना गजराजों की अपेक्षा दूनी थी। उसके यहाँ सोलह जार घोड़े ऐसे थे, जिनका रंग पलास के फूल की भाँति लाल था। राजन्! किशोर अवस्था के घोडों का एक दूसरा दल भी मौजूद था, जिसकी संख्या सोलह हजार थी। इन अश्वों के सवार भी बहुत अच्छे थे। इस अवश्वसेना को कोई भी बलपूर्वक दबा नहीं सकता था। कंस का भाई सुनामा इन सबका सरदार था। वह भी कंस के ही समान बलावान् था एवं सदा कंस की रक्षा के लिये तत्पर रहता था। युधिष्ठिर! कंस के यहाँ घोड़ों का एक और भी बहुत बड़ा दल था, जिसमें सभी रंग के घोड़े थे। उस दल का नाम था मिश्रक। मिश्रकों की संख्या साठ हजार बतलायी जाती है। (कंस के सााि होने वाला महान् समर एक भयंकर नदी के समान था।) कंस कारोष ही उस नदी का महान् वेग था। ऊँचे-ऊँचे ध्वज तटवर्ती वृक्षों के समान जान पड़ते थे। मतवाले हाथी बड़ेे-बड़ेे ग्राहों के समान थे। वह नदी यमराज की आज्ञा के अधीन होकर चलती थी। अस्त्र-शस्त्र के समूह उसमें फेन का भ्रम उत्पन्न करते थे। सवारों का वेग उसमें जलप्रवाह सा प्रतीत होता था। गदा और परिघ पाठीन नामक मछलियों के सद्दृश जान पड़ते थे। नाना प्रकार के कवच सेवार के समान थे। रथ और हाथी उसमें बड़ी बड़ी भँवरों का दृश्य उपस्थित करते थे। नाना प्रकार का रक्त ही कीचड़ का काम करता था। विचित्र धनुष उठती हुई लहरों के समान जान पड़ते थे। रथ और अश्वों का समूह ह्रद के समान था। योद्धाओं के इधर-उधर दौड़ने या बोलने से जो शब्द होता था, वही उस भयानक समर सरिता का कलकल नाद था। युधिष्ठिर! भगवान ् नारायण के सिवा ऐसे कंस को कौन मार सकता था? भारत! जैसे हवा बड़े-बड़े बादलों को छिन्न-छिन्न कर देती है, उसी प्रकार इन भगवान श्रीकृष्ण ने इन्द्र के रथ में बैठकर कंस की उपर्युक्त सारी सेनाओं का संहार कर डाला। सभा में विराजमान कंस को मन्त्रियों और परिवार के साथ भारकर श्रीकृष्ण ने मुह्रदों सहित सम्माननीय माता देवकी का समादर किया।
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