महाभारत सभा पर्व अध्याय 41 श्लोक 17-33
एकचत्वारिंश (41) अध्याय: सभा पर्व (शिशुपालवध पर्व)
तुम कहते हो, ‘ये बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, ये ही सम्पूर्ण जगत के ईश्वर हैं’ और तुम्हारे ही कहने से यह कृष्ण अपने को ऐसा ही समझने भी लगा है। वह इन सभी बातों को ज्यों की त्यों ठीक मानता है, परंतु मेरी दृष्टि में कृष्ण के सम्बन्ध में तुम्हारे द्वारा जो कुछ कहा गया है, वह सब निश्चय ही झूठा है। कोई भी गीत गाने वाले को कुछ सिखा नहीं सकता, चाहे वह कितनी ही बार क्यों न गाता हो। भूलिंग पक्षी की भाँति सब प्राणी अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करते हैं। निश्चय ही तुम्हारी यह प्रकृति बड़ी अधम है, इसमें संशय नहीं है। अतएव इन पाण्डवों की प्रकृति भी तुम्हारे ही समान अत्यन्त पापमयी होती जा रही है। अथवा क्यों न हो, जिनका परम पूजनीय कृष्ण है और सत्पुरुषों के मार्ग से गिरा हुआ तुम जैसा धर्मज्ञान शून्य धर्मात्मा जिनका मार्ग दर्शक है। भीष्म! कौन ऐसा पुरुष होगा, जो अपने को ज्ञानवानों में श्रेष्ठ और धर्मात्मा जानते हुए भी ऐसे नीच कर्म करेगा, जो धर्म पर दृष्टि रखते हुए भी तुम्हारे द्वारा किये गये हैं। यदि तुम धर्म को जानते हो, यदि तुम्हारी बुद्धि उत्तम ज्ञान और विवेक से सम्पन्न है तो तुम्हारा भला हो, बाताओ, काशिराज जी जो धर्मज्ञ कन्या अम्बा दूसरे पुरुष में अनुरक्त थी, उसका अपने को पण्डित मानने वाले तुमने क्यों अपहरण किया? भीष्म! तुम्हारे द्वारा अपहरण की गयी उस काशिराज की कन्या को तुम्हारे भाई विचित्रवीर्य ने अपनाने की इच्छा नहीं की, क्योंकि वे सन्मार्ग पर स्थित रहने वाले थे। उन्हीं की दोनों विधवा पत्नियों के गभ्र से तुम जैसे पण्डित मानी के देखते-देखते दूसरे पुरुष द्वारा संतानें उत्पन्न की गयीं, फिर भी तुम अपने को साधु पुरुषों के मार्ग पर स्थिर मानते हो। भीष्म! तुम्हारा धर्म क्या है! तुम्हारा यह ब्रह्मचर्य भी व्यर्थ का ढकोसला मात्र है, जिसे तुमने मोहवश अथवा नपुंसकता के कारण धारण कर रखा है, इसमें संशय नहीं। धर्मज्ञ भीष्म! मैं तुम्हारी कहीं कोई उन्नति भी तो नहीं देख रहा हूँ। मेरा तो विश्वास है, तुमने ज्ञानवृद्ध पुरुषों का भी संग नहीं किया है। तभी तो तुम ऐसे धर्म का उपदेश करते हो। ज्ञन, दान, स्वाध्याय तथा बहुत दक्षिणा वाले बड़े-बड़े यज्ञ- ये सब संतान की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते। भीष्म! अनेक व्रतों और उपवासों द्वारा जो पुण्य कार्य किया जाता है, वह सब संतानहीन पुरुष के लिये निश्चय ही व्यर्थ हो जाता है। तुम संतानहीन, वृद्धि और मिथ्याधम्र का अनुसरण करने वाले हो, अत: इस समय हंस की भाँति तुम भी अपने जाति भाइयों के हाथ ही मारे जाओगे। भीष्म! पहले के विवेकी मनुष्य एक प्राचीन वृत्तान्त सुनाया करते हैं, वही मैं ज्यों का त्यों तुम्हारे सामने उपस्थित करता हूँ, सुनो। पूर्वकाल की बात है, समुद्र के निकट कोई बूढ़ा हंस रहता था। वह धर्म की बातें करता, पंरतु उसका आचरण ठीक उसके विपरीत होता था। वह पक्षियों को सदा यह उपदेश दिया करता कि धर्म करो, अधर्म से दूर रहो। सदा सत्य बोलने वाले उस हंस के मुख से दूसरे-दूसरे पक्षी यही उपदेश सुना करते थे। भीष्म! ऐसा सुनने में आया है कि वे समुद्र के जल में विचर ने वाले पक्षी धर्म समझकर उसके लिये भोजन जुटा दिया करते थे।
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