महाभारत सभा पर्व अध्याय 65 श्लोक 32-45

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पञ्चषष्टितम (65) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: पञ्चषष्टितम अध्याय: श्लोक 32-45 का हिन्दी अनुवाद

तत्‍पश्‍चात् शकुनि फिर कहा—राजन् ! आपकी प्रियतमा द्रौपदी एक ऐसा दाँव है, जिसे आप अब तक नहीं हारे हैं; अत: पांचालराज कुमारी कृष्‍णा को आप दाँव पर रखिये और उसके द्वारा फिर अपने को जीत लीजिये। युधिष्ठिरने कहा—जो न नाटी हैन लंबी, न कृष्‍णवर्णा है न अधिक रक्‍तवर्णा तथा जिसके केश नीले और घुँघराले हैं, उस द्रौपदी को दाँव पर लगाकर मैं तुम्‍हारे साथ जूआ खेलता हूँ। उसके नेत्र शरद् ऋतु के प्रफूल्‍ल कमलदल के समान सुन्‍दर एवं विशाल हैं । उसके शरीर से शारदीय कमल के समान सुगन्‍ध फैलती रहती है । वह शरद्ऋतु के कमलों का सेवन करती है तथा रूप में साक्षात् लक्ष्‍मी के समान है। पुरूष जैसी स्‍त्री प्राप्‍त करने की अभिलाषा रखता है, उसमें वैसा ही दयाभाव है, वैसी ही रूपसम्‍पति है तथा वैसे ही शील-स्‍वभाव हैं। वह समस्‍त सद्गुणों से सम्‍पन्‍न तथा मन के अनुकूल और प्रिय वचन बोलने वाली है । मनुष्‍य धर्म, काम और अर्थ की सिद्धि के लिये जैसी पत्‍नी की इच्‍छा रखता है, द्रौपदी वैसी ही है। वह ग्‍वालों और भेड़ों के चरवाहों से भी पीछे सोती और सबसे पहले जागती है । कौन-सा कार्य हुआ और कौन-सा नहीं हुआ, इन सबकी वह जानकारी रखती है। उसका स्‍वेदबिन्‍दुओं से विभूषित मुख कमल के समान सुन्‍दर और महिला के समान सुगन्धित है । उसका मध्‍यभाग वेदी के समान कृश दिखायी देता है । उसके सिर के केश बेड़-बडे़ मुख और ओष्‍ठ अरूणवर्ण के हैं तथा उसके अंगों में अधिक रोमावलियाँ नहीं हैं। सुबलपुत्र ! ऐसी सर्वांग सुन्‍दरी सुमध्‍यमा पांचाल-राजकुमारी द्रौपदी को दाँव पर रखकर मैं तुम्‍हारे साथ जूआ खेलता हूँ; यद्यपि ऐसा करते हुए मुझे महान् कष्‍ट हो रहा है। वैशम्‍पायनजी कहते हैं—जनमेजय ! बुद्धिमान धर्मराज के ऐसा कहते ही उस सभा में बैठे हुए बडे़-बडे़ लोगों के मुख से ‘धिक्‍कार है, धिक्‍कार है’ की आवाज आने लगी। राजन् उस समय सारी सभा में हलचल मच गयी । राजाओं को बड़ा शोक हुआ । भीष्‍म, द्रोण और कृपाचार्य आदि के शरीर से पसीना छूटने लगा। विदुरजी तो दोनों हाथों से अपना सिर थामकर बेहोश-से हो गये। वे फुँफकारते हुए सर्प की भाँति अच्‍छावास लेकर मुँह नीचे किये हुए गम्‍भीर चिन्‍ता में निमग्‍न हो बैठे रह गये। बाह्रीक, प्रतीप के पौत्र सोमदत्त, भीष्‍म, संचय, अश्‍वत्‍थामा, भूरिश्रवा तथा धृतराष्‍ट्र युयुत्‍सु–ये सब मुँह नीचे किये सर्पों के समान लंबी साँसें खींचते हुए अपने दोनों हाथ मलने लगे। धृतराष्‍ट्र मन-ही-मन प्रसन्‍न हो उनसे बार-बार पूछ रहे थे, ‘क्‍या हमारे पक्ष की जीत हो रही है ?’ वे अपनी प्रसन्‍नता की आकृति को न छिपा सके। दु:शासन आदि के साथ कर्ण को तो बड़ा हर्ष हुआ; परंतु अन्‍य सभासदों की आँखों से आँसू गिरने लगे। सुबलपुत्र शकुनि ने मैंने यह भी जीत लिया, ऐसा कहकर पासों को पुन: उठा लिया । उस समय वह विजयोउल्‍लास से सुशोभित और मदोन्‍मत्त हो रहा था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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