महाभारत सभा पर्व अध्याय 73 श्लोक 1-18

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

त्रिसप्‍ततितम (73) अध्‍याय: सभा पर्व (द्यूत पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: त्रिसप्‍ततितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

धृतराष्‍ट्र का युधिष्ठिर सारा धन लौटाकर एवं समझा-बुझाकर इन्‍द्रपस्‍थ जाने का आदेश देना

युधिष्ठिर बोले— राजन् ! आप हमारे स्‍वामी हैं । आज्ञा दीजिये, हम क्‍या करें । भारत ! हम लोग सदा आपकी आज्ञा के अधीन रहना चाहते हैं। धृतराष्‍ट्रने कहा—अजातशत्रों ! तुम्हारा कल्‍याण हो । तुम मेरी आज्ञा से हारे हुए धन के साथ बिना किसी विन्‍न-बाधा के कुशलपूर्वक अपनी राजधानी कों जाओ और अपने राज्‍य का शासन करो। मुझे वृ‍द्ध की यही आज्ञा है । एक बात और है, उस पर भी ध्‍यान देना । मेरी कही हुई सारी बातें तुम्‍हारे हित और परम मण्‍डल के लिये होगी। तात युधिष्ठिर ! तुम धर्म की सूक्ष्‍म गति को जानते हो । महामते ! तुममें विनय है । तुमने बडे़-बूढ़ों की उपासना की है। जहाँ बुद्धि है, वहीं शान्ति है । भारत ! तुम शान्‍त हो जाओ। (जो कुछ हुआ है, उसे भूल जाओ ।) पत्‍थर या लोहे पर कुल्‍हाड़ी नहीं पड़ती । लोग उसे लकड़ी पर ही चलाते हैं। जो पुरूष वैर को याद नहीं रखते, गुणों को ही देखते हैं, अवगुणों को नहीं तथा किसी से विरोध नहीं रखते, वे ही उत्तम पुरूष कहे गये हैं । साधु पुरूष दूसरों के सत्‍कमों (उपकारादि) को ही याद रखते हैं, उनके किये हुए वैर को नही । वे दूसरों की भलाई तो करते हैं; परंतु उनसे बदला लेने-की भावना नहीं रखते। युधिष्ठिर ! नीच मनुष्‍य साधारण बातचीत में भी कटुवचन बोलने लगते हैं । जो स्‍वयं पहले कटुवचन न कहकर प्रत्‍युत्तर में कठोर बातें कहते हैं, वे मध्‍यम श्रेणी के पुरूष हैं । पंरतु जो घीर एवं श्रेष्‍ठ पुरूष हैं, वे किसी के कटुवचन बोलने या न बोलने पर भी अपने मुख से कभी कठोर एवं अहितकर बात नहीं निकालते। महात्‍मा पुरूष अपने अनुभव को सामने रखकर दूसरों के सुख-दु:ख को भी अपने समान जानते हुए उनके अच्‍छे बर्तावों को ही याद रखते हैं, उनके द्वारा किये हुए वैर-विरोध- को नहीं सत्‍पुरूष आर्यमर्यादा को कभी भंग नहीं करते । उनके दर्शन-से सभी लोग प्रसन्‍न हो जाते हैं । युधिष्ठिर ! कौरव-पाण्‍डवों के समागम में तुमने श्रेष्‍ठ पुरूषों के समान ही आचरण किया है। तात ! दुर्योधन जो कठोर बर्ताव किया है, उसे तुम अपने हृदय में मत लाना । भारत ! तुम तो उत्तम गुण ग्रहण करने की इच्‍छा से अपनी माता गान्‍धारी तथा यहाँ बैठे हुए मुझ अंधे बूढ़े ताऊ की ओर देखो। मैंने सोच-समझकर भी इस जूए की इसलिये उपेक्षा कर दी—उसे रोकने की चेष्‍टृा नहीं की कि मैं मित्रों और सुहृदों से मिलना चाहता था और अपने पुत्रों के बलाबल को देखना चा‍हता था । राजन् ! जिनके तुम शासक हो और सब शास्‍त्रों में निपुण परम बुद्धिमान विदुर जिनके मन्‍त्री हैं, वे कुरूवंशी कदापि शोक के योग्‍य नहीं हैं। तुम में धर्म है, अर्जुन में धैर्य है, भीमसेन में पराक्रम है और नरश्रेष्‍ठ नकुल-सहदेव में श्रद्धा एवं विशुद्ध गुरूसेवा का भाव है । अजातशत्रो ! तुम्‍हारा भला हो । अब तुम खाण्‍डवप्रस्‍थ को जाओ । दुर्योधन आदि बन्‍धुओं के प्रति तुम्‍हें अच्‍छे भाई का-सा स्‍नेह भाव रहे और तुम्‍हारा मन सदा धर्म में लगा रहे। वैशम्‍पायनजी कहते हैं—भरतश्रेष्‍ठ ! राजा धृतराष्‍ट्र के इस प्रकार कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर पूज्‍य वर धृतराष्‍ट्र के आदेश को स्‍वीकार करके भाईयों के सहित वहाँ से विदा हो गये। वे मेघ के समान शब्‍द करने वाले रथों पर द्रौपदी के साथ बैठकर प्रसन्‍न मन से नगरों में उत्तम इन्‍द्रप्रस्‍थ को चले दिये।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।