श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 36-44
एकादश स्कन्ध :षोडशोऽध्यायः (16)
मैं ही पैरों में चलने की शक्ति, वाणी में बोलने की शक्ति, पायु में मल-त्याग की शक्ति, हाथों में पकड़ने की शक्ति और जननेद्रिय में आनन्दोपभोग की शक्ति हूँ। त्वचा में स्पर्श की, नेत्रों में दर्शन की, रसना में स्वाद लेने की, कानों में श्रवण की और नासिका में सूँघने की शक्ति भी मैं ही हूँ। समस्त इन्द्रियों की इन्द्रिय-शक्ति मैं ही हूँ । पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, अहंकार, महतत्व, पंचमहाभूत, जीव, अव्यक्त, प्रकृति, सत्व, रज, तम और उनसे परे रहने वाला ब्रम्ह—ये सब मैं ही हूँ । इन तत्वों की गणना, लक्षणों द्वारा उनका ज्ञान तथा तत्वज्ञान रुप उसका फल भी मैं ही हूँ। मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही जीव हूँ, मैं ही गुण और मैं ही गुणी हूँ। मैं ही सबका आत्मा हूँ और मैं ही सब कुछ हूँ। मेरे अतिरिक्त और कोई भी पदार्थ कहीं भी नहीं है । यदि मैं गिनने लगूँ तो किसी समय परमाणुओं की गणना तो कर सकता हूँ, परन्तु अपनी विभूतियों की गणना नहीं कर सकता। क्योंकि जब मेरे रचे हुए कोटि-कोटि ब्राम्हणों की भी गणना नहीं हो सकती, तब मेरी विभूतियों की गणना तो हो ही कैसे सकती है । ऐसा समझो कि जिसमें भी तेज, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य, लज्जा, त्याग, सौन्दर्य, सौभाग्य, पराक्रम, तितिक्षा और विज्ञान आदि श्रेष्ठ गुण हों, वह मेरा ही अंश है । उद्धवजी! मैंने तुम्हारे प्रश्न के अनुसार संक्षेप से विभूतियों का वर्णन किया। ये सब परमार्थ-वस्तु नहीं हैं, मनोविकार मात्र हैं; क्योंकि मन से सोची और वाणी से कही हुई कोई भी वस्तु परमार्थ (वास्तविक) नहीं होती। उसकी एक कल्पना ही होती है । इसलिए तुम वाणी को स्वच्छन्द भाषण को रोको, मन के संकल्प-विकल्प बंद करो। इसके लिये प्राणों को वश में करो और इन्द्रियों का दमन करो। सात्विक बुद्धि के द्वारा प्रपंचाभिमुख बुद्धि को शान्त करो। फिर तुम्हें संसार के जन्म-मृत्यु रूप बीहड़ मार्ग में भटकना नहीं पड़ेगा । जो साधक बुद्धि के द्वारा वाणी और मन को पूर्णतया वश में नहीं कर लेता, उसके व्रत, तप और दान उसी प्रकार क्षीण हो जाते हैं, जैसे कच्चे घड़े में भरा हुआ जल , इसलिये मेरे प्रेमी भक्त को चाहिये कि मेरे परायण होकर भक्ति युक्त बुद्धि से वाणी, मन और प्राणों का संयम करे। ऐसा कर लेने पर फिर उसे कुछ करना शेष नहीं रहता। वह कृतकृत्य हो जाता है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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