श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 16-30
एकादश स्कन्ध : सप्तदशोऽध्यायः (17)
॥शम, दम, तपस्या, पवित्रता, सन्तोष, क्षमाशीलता, सीधापन, मेरी भक्ति, द्या और सत्य—ये ब्राम्हण वर्ण के स्वभाव हैं । तेज, बल, धैर्य, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उद्दोगशीलता, स्थिरता, ब्राम्हण-भक्ति और ऐश्वर्य—ये क्षत्रिय वर्ण के स्वभाव हैं । आस्तिकता, दानशीलता, दम्भहीनता, ब्राम्हणों की सेवा करना और धन संचय से सन्तुष्ट न होना—ये वैश्य वर्ण के स्वभाव हैं । ब्राम्हण, गौ और देवताओं की निष्कपट भाव से सेवा करना और उसी से जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहना—ये शूद्र वर्ण के स्वभाव हैं । अपवित्रता, झूठ बोलना, चोरी करना, ईश्वर और परलोक की परवा न करना, झूठमूठ झगड़ना और काम, क्रोध एवं तृष्णा के वश में रहना—ये अन्त्यजों के स्वभाव हैं । उद्धवजी! चारों वर्णों और चारों आश्रमों के लिये साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीर से किसी की हिंसा न करें; सत्य पर दृढ़ रहें; चोरी न करें; काम, क्रोध तथा लोभ से बचें और जिन कामों के करने से समस्त प्राणियों की प्रसन्नता और उनका भला हो, वही करें ।
ब्राम्हण, क्षत्रिय तथा वैश्य गर्भाधान आदि संस्कारों के क्रम से यज्ञोपवीत संस्कार रूप द्वितीय जन्म प्राप्त करके गुरुकुल में रहे और अपनी इन्द्रियों को वश में रखे। आचार्य के बुलाने पर वेद का अध्ययन करे और उसके अर्थ का भी विचार करे । मेखला, मृगचर्म, वर्ण के अनुसार दण्ड, रुद्राक्ष की माला, यज्ञोपवीत और कमण्डलु धारण करे। सिर पर जटा रखे, शौकीनी के लिये दाँत और वस्त्र न धोवे, रंगीन आसन पर न बैठे और कुश धारण करे । स्नान, भोजन, हवन, जप और मल-मूत्र त्याग के समय मौन रहे। और कक्ष तथा गुप्तेन्द्रिय के बाल और नाखूनों को कभी न काटे । पूर्ण ब्रम्हचर्य का पालन करे। स्वयं तो कभी वीर्यपात करे ही नहीं। यदि स्वपन आदि में वीर्य स्खलित हो जाय, तो जल में स्नान करके प्राणायाम करे एवं गायत्री का जप करे । ब्रम्हचारी को पवित्रता के साथ एकाग्रचित्त होकर अग्नि, सूर्य, आचार्य, गौ, ब्राम्हण, गुरू, वृद्धजन और देवताओं की उपासना करनी चाहिये तथा सायकल और प्रातःकाल मौन होकर संध्योपासन एवं गायत्री का जप करना चाहिये । आचार्य को मेरा ही स्वरुप समझे, कभी उनका तिरस्कार न करे। उन्हें साधारण मनुष्य समझकर दोषदृष्टि न करे; क्योंकि गुरु सर्वदेवमय होता है । सायंकाल और प्रातःकाल दोनों समय जो कुछ भिक्षा में मिले वह लाकर गुरुदेव के आगे रख दे। केवल भोजन ही नहीं, जो कुछ हो सब। तदनन्तर उनके आज्ञानुसार बड़े सयम से भिक्षा आदि का यथोचित उपयोग करे । आचार्य यदि जाते हों तो उनके पीछे-पीछे चले, उनके सो जाने के बाद बड़ी सावधानी से उनसे थोड़ी दूर पर सोवे। थके हो, तो पास बैठकर चरण दबावे और बैठे हों, तो उनके आदेश की प्रतीक्षा में हाथ जोड़कर पास में ही खड़ा रहे। इस प्रकार अत्यन्त छोटे व्यक्ति की भाँति सेवा-शुश्रूषा के द्वारा सदा-सर्वदा आचार्य की आज्ञा में तत्पर रहे । जब तक विद्याध्ययन समाप्त न हो जाय, तब तक सब प्रकार के भोगों से दूर रहकर इसी प्रकार गुरुकुल में निवास करे और कभी अपना ब्रम्हचर्य व्रत खण्डित न होने दे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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