श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 32-38
दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः(14) (पूर्वार्ध)
अहो, नन्द आदि व्रजवासी गोपों के धन्य भाग्य हैं। वास्तव में उनका अहोभाग्य है। क्योंकि परमानन्दस्वरुप सनातन परिपूर्ण ब्रम्ह आप उनके अपने सगे-सम्बन्धी और सुहृद् हैं । हे अच्युत! इन व्रजवासियों के सौभाग्य की महिमा तो अलग रही—मन आदि ग्यारह इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवताओं के रूप में रहने वाले महादेव आदि हम लोग बड़े ही भाग्यवान् हैं। क्योंकि इन व्रजवासियों की मन आदि ग्यारह इन्द्रियों को प्याले बनाकर हम आपके चरणकमलों का अमृत से भी मीठा, मदिरा से भी मादक मधुर मकरकन्द रस पान करते रहते हैं। जब उसका एक-एक इन्द्रिय से पान करके हम धन्य-धन्य हो रहे हैं, तब समस्त इन्द्रियों से उसका सेवन करनेवाले व्रजवासियों की तो बात ही क्या है । प्रभो! इस व्रजभूमि के किसी वन में और विशेष करके गोकुल में किसी भी योनि में जन्म हो जाय, यही हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात होगी! क्योंकि यहाँ जन्म हो जाने पर आपके किसी-न-किसी प्रेमी के चरणों की धूलि अपने ऊपर पड़ ही जायगी। प्रभो! आपके प्रेमी व्रजवासियों का सम्पूर्ण जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवन के एकमात्र सर्वस्व हैं। किसी वन में और विशेष करके गोकुल में किसी भी योनि में जन्म हो जाय, यही हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात होगी! क्योंकि यहाँ जन्म हो जाने पर आपके किसी-न-किसी प्रेमी के चरणों की धूलि अपने ऊपर पड़ ही जायगी। प्रभो! आपके प्रेमी व्रजवासियों का सम्पूर्ण जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवन के एकमात्र सर्वस्व हैं। इसलिए उनके चरणों की धूलि मिलना आपके ही चरणों की धूलि मिलना है और आपके चरणों की धूलि को तो श्रुतियाँ भी अनादि काल से अबतक ढूंढ़ ही रही हैं । देवताओं के भी आराध्यदेव प्रभो! इन व्रजवासियों को इनकी सेवा के बदले में आप क्या फल देंगे ? सम्पूर्ण फलों के फलस्वरूप! आपसे बढ़कर और कोई फल तो है ही नहीं, यह सोचकर मेरा चित्त मोहित हो रहा है। आप उन्हें अपना स्वरुप भी देकर उऋण नहीं सकते। क्योंकि आपके स्वरुप को तो उस पूतना ने भी अपने सम्बन्धियों—अघासुर, बकासुर आदि के साथ प्राप्त कर लिया, जिसका केवल वेष ही साध्वी स्त्री का था, पर जो ह्रदय से महान् क्रूर थी। फिर, जिन्होंने अपने घर, धन, स्वजन, प्रिय, शरीर, पुत्र, प्राण और मन—सब कुछ आपके ही चरणों में समर्पित कर दिया है, जिनका सब कुछ आपके ही लिये है, उन व्रजवासियों को भी वही फल देकर आप कैसे उऋण हो सकते हैं । सच्चिदानन्दस्वरुप श्यामसुन्दर! तभी तक राग-द्वेष आदि चोरों के समान सर्वस्व अपहरण करते रहते हैं, तभी तक घर और उसके सम्बन्धी कैद की तरह सम्बन्ध के बन्धनों में बाँध रखते हैं और तभी तक मोह पैर की बेड़ियों की तरह जकड़े रखता है—जब तक जीव आपका नहीं हो जाता । प्रभो! आप विश्व के बखेड़े से सर्वथा रहित हैं, फिर भी अपने शरणागत भक्तजनों को अनन्त आनन्द वितरण करने के लिए पृथ्वी में अवतार लेकर विश्व के समान ही लीला-विलास का विस्तार करते हैं । मेरे स्वामी! बहुत कहने की आवश्यकता नहीं—जो लोग आपकी महिमा जानते हैं, वे जानते रहें; मेरे मन, वाणी और शरीर तो आपकी महिमा जानने में सर्वथा असमर्थ हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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