श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 38 श्लोक 18-25
दशम स्कन्ध: अष्टात्रिंशोऽध्यायः (38) (पूर्वार्ध)
मैं कंस का दूत हूँ। उसी के भेजने से उनके पास जा रहा हूँ। कहीं वे मुझे अपना शत्रु तो न समझ बैठेंगे ? राम-राम! वे ऐसा कदापि नहीं समझ सकते। क्योंकि वे निर्विकार हैं, सम हैं, अच्युत हैं, सारे विश्व के साक्षी हैं, सर्वज्ञ हैं, वे चित्त के बाहर भी हैं और भीतर भी। वे क्षेत्रज्ञ रूप से स्थित होकर अन्तःकरण की एक-एक चेष्टा को अपनी निर्मल ज्ञान-दृष्टि के द्वारा देखते रहते हैं । तब मेरी शंका व्यर्थ हैं। अवश्य ही मैं उनके चरणों में हाथ जोड़कर विनीतभाव से खड़ा हो जाऊँगा। वे मुसकराते हुए दयाभरी स्निग्ध दृष्टि से मेरी ओर देखेंगे। उस समय मेरे जन्म-जन्म के समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो जायँगे और मैं निःशंक होकर सदा के लिये परमानन्द में मग्न हो जाऊँगा ॥ १९ ॥ मैं उनके कुटुम्ब का हूँ और उनका अत्यन्त हित चाहता हूँ। उनके सिवा और कोई मेरा आराध्यदेव भी नहीं है। ऐसी स्थिति में वे अपनी लंबी-लंबी बाँहों से पकड़कर मुझे अवश्य अपने ह्रदय से लगा लेंगे। अहा! उस समय मेरी तो देह पवित्र होगी ही, वह दूसरों को पवित्र करने वाली भी बन जायगी और उसी समय—उनका आलिंगन प्राप्त होते ही—मेरे कर्ममय बन्धन, जिनके कारण मैं अनादिकाल से भटक रहा हूँ, टूट जायँगे । जब वे मेरा आलिंगन कर चुकेंगे और मैं हाथ जोड़, सिर झुकाकर उनके सामने खड़ा हो जाऊँगा। तब वे मुझे ‘चाचा अक्रूर!’ इस प्रकार कहकर सम्बोधन करेंगे। क्यों न हो, इसी पवित्र और मधुर यश का विस्तार करने के लिये ही तो वे लीला कर रहे हैं। तब मेरा जीवन सफल हो जायगा। भगवान श्रीकृष्ण ने जिसको अपनाया नहीं, जिसे आदर नहीं दिया—उसके उस जन्म को, जीवन को धिक्कार है । न तो उन्हें कोई प्रिय है और न तो अप्रिय। न तो उनका कोई आत्मीय सुहृद् है और न तो शत्रु। उनकी उपेक्षा का पात्र भी कोई नहीं है। फिर भी जैसे कल्पवृक्ष अपने निकट आकर याचना करने वालों को उनकी मुँहमाँगी वस्तु देता है, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण भी, जो उन्हें जिस प्रकार भजता है, उसे उसी रूप में भजते हैं—वे अपने प्रेमी भक्तों से ही पूर्ण प्रेम करते हैं । मैं उनके सामने विनीत भाव से सिर झुकाकर खड़ा हो जाऊँगा और बलरामजी मुसकराते हुए मुझे अपने ह्रदय से लगा लेंगे और फिर मेरे दोनों हाथ पकड़कर मुझे घर के भीतर ले जायँगे। वहाँ सब प्रकार से मेरा सत्कार करेंगे। इसके बाद मुझसे पूछेंगे कि ‘कंस हमारे घरवालों के साथ कैसा व्यवहार करता है ?’ ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! श्वफल्कनन्दन अक्रूर मार्ग में इसी चिन्तन में डूबे-डूबे रथ से नन्द गाँव पहुँच गये और सूर्य अस्ताचल पर चले गये । जिनके चरणकमल की रज का सभी लोकपाल अपने किरीटों के द्वारा सेवन करते हैं, अक्रूरजी ने गोष्ठ में उनके चरणचिन्हों के दर्शन किये। कमल, यव, अंकुश आदि असाधारण चिन्हों के द्वारा उनकी पहचान हो रही थी और उनसे पृथ्वी की शोभा बढ़ रहीं थी ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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