श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 51 श्लोक 1-14
दशम स्कन्ध: एकपञ्चाशत्त्मोऽध्यायः (51) (उत्तरार्धः)
कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! जिस समय भगवान श्रीकृष्ण मथुरा नगर के मुख्य द्वार से निकले, उस समय ऐसा मालूम पड़ा मानो पूर्व दिशा से चंद्रोदय हो रहा हो। उनका श्यामल शरीर अत्यन्त ही दर्शनीय था, उस पर रेशमी पीताम्बर की छटा निराली ही थी; वक्षःस्थल पर स्वर्ण रेखा के रूप में श्रीवत्स चिन्ह शोभा पा रहा था और गले में कौस्तुभमणि जगमगा रही थी। चार भुजाएँ थीं, जो लम्बी-लम्बी और कुछ मोटी-मोटी थीं। हाल के हाल के खिले हुए कमल के समान कोमल और रतनारे नेत्र थे। मुखकमल पर राशि-राशि आनन्द खेल रहा था। कपोलों की छटा निराली हो रही थी। मन्द-मन्द मुसकान देखने वालों का मन चुराये लेती थी। कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल झलक रहे थे। उन्हें देखकर कालयवन ने निश्चय किया कि ‘यही पुरुषवासुदेव है। क्योंकि नारदजी ने जो-जो लक्षण बतलाये थे—वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह, चार भुजाएँ, कमल के-से- नेत्र, गले में वनमाला और सुन्दरता की सीमा; वे सब इसमें मिल रहे हैं। इसलिये यह कोई दूसरा नहीं हो सकता। इस समय यह बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के पैदल ही इस ओर चला आ रहा है, इसलिये मैं भी इसके साथ बिना अस्त्र-शस्त्र के ही लडूँगा’।
ऐसा निश्चय करके जब कालयवन भगवान श्रीकृष्ण कि ओर दौड़ा, तब वे दूसरी ओर मुँह करके रणभूमि से भाग चले और उन योगिदुर्लभ प्रभु को पकड़ने के लिये कालयवन उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा । रणछोड़ भगवान लीला करते हुए भाग रहे थे; कालयवन पग-पग पर यही समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान उसे बहुत दूर एक पहाड़ की गुफा में ले गये । कालयवन पीछे से बार-बार आक्षेप करता कि ‘अरे भाई! तुम परम यशस्वी यदुवंश में पैदा हुए हो, तुम्हारा इस प्रकार युद्ध छोड़कर भागना उचित नहीं है।’ परन्तु अभी उसके अशुभ निःशेष नहीं हुए थे, इसलिये वह भगवान को पाने में समर्थ न ओ सका । उसके आक्षेप करते रहने पर भी भगवान उस पर्वत की गुफा में घुस गये। उसके पीछे कालयवन भी घुसा। वहाँ उसने एक दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा । उसे देखकर कालयवन ने सोचा ‘देखो तो सही, यह मुझे इस प्रकार इतनी दूर ले आया और अब इस तरह—मानो इसे कुछ पता ही न हो—साधु बाबा बनकर सो रहा है।’ यह सोचकर उस मूढ़ने से कसकर एक लात मारी । वह पुरुष वहाँ बहुत दिनों से सोया हुआ था। पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखायी दिया । परीक्षित्! वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाये जाने से कुछ रुष्ट हो गया था। उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो गयी और वह क्षणभर में जलकर ढेर हो गया । राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! जिसके दृष्टिपात मात्र से कालयवन जलकर भस्म हो गया, वह प्रुरुष कौन था ? किस वंश का था ? उसमें कैसी शक्ति थी और वह किसका पुत्र था ? आप कृपा करके यह भी बतलाइये कि वह पर्वत की गुफा में जाकर क्यों सो रहा था ?
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! वे इक्ष्वाकुवंशी महाराज मान्धाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे। वे ब्राम्हणों के परम भक्त, सत्यप्रतिज्ञ, संग्रामविजयी और महापुरुष थे ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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