श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 59 श्लोक 1-10

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दशम स्कन्ध: एकोनषष्टितमोऽध्यायः (59) (उत्तरार्धः)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनषष्टितमोऽध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! भगवान श्रीकृष्ण ने भौमासुर को, जिसने उन स्त्रियों को बंदीगृह में डाल रखा था, क्यों और कैसे मारा ? आप कृपा करके सारंग-धनुषधारी भगवान श्रीकृष्ण का वह विचित्र चरित्र सुनाइये ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भौमासुर ने वरुण का छत्र, माता अदिति के कुण्डल और मेरु पर्वत पर स्थित देवताओं का मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया था। इस पर सबके राजा इन्द्र द्वारका में आये और उसकी एक-एक करतूत उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को सुनायी। अब भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा के साथ गरुड़ पर सवार हुए और भौमसुर की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर में गये । प्रागज्योतिषपुर में प्रवेश करना बहुत कठिन था। पहले तो उसके चारों ओर पहाड़ों की किलेबंदी थी, उसके बाद शास्त्रों का घेरा लगाया हुआ था। फिर जल से भरी खाई थी, उसके बाद आग या बिजली की चहारदिवारी थी और उसके भीतर वायु (गैस) बंद करके रखा गया था। इससे भी भीतर मुर दैत्य ने नगर के चारों ओर अपने दस हजार घोर एवं सुदृढ़ फंदे (जाल) बिछा रखे थे । भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी गदा की चोट से पहाड़ों को तोड़-फोड़ डाला और शस्त्रों की मोरचे-बंदी को बाणों से छिन्न-भिन्न कर दिया। चक्र के द्वारा अग्नि, जल और वायु की चहारदिवारियों को तहस-नहस कर दिया और मुर दैत्य के फंदों को तलवार से काट-कूटकर अलग रख दिया । जो बड़े-बड़े यन्त्र-मशीनें वहाँ लगी हुईं थीं, उसको तथा वीरपुरुषों के ह्रदय को शंखनाद से विदीर्ण कर दिया और नगर के परकोटे को गदाधर भगवान ने अपनी भारी गदा से ध्वंस कर डाला ।

भगवान के पांचजन्य शंख की ध्वनि प्रलयकालीन बिजली की कड़क के समान महाभयंकर थीं। उसे सुनकर मुर दैत्य की नींद टूटी और वह बाहर निकल आया। उसके पाँच सिर थे और अब तक वह जल के भीतर सो रहा था । वह दैत्य प्रलयकालीन सूर्य और अग्नि के समान प्रचण्ड तेजस्वी था। वह इतना भयंकर था कि उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी आसान काम नहीं था। उसने त्रिशूल उठाया और इस प्रकार भगवान की ओर दौड़ा, जैसे साँप गरुड़जी पर टूट पड़े। उस समय ऐसा मालूम होता था मानो वह अपने पाँचों मुखों से त्रिलोकी को निगल जायगा । उसने अपने त्रिशूल को बड़े वेग से घुमाकर गरुड़जी पर चलाया और फिर अपने पाँचों मुखों से घोर सिंहनाद करने लगा। उसके सिंहनाद का महान् शब्द पृथ्वी, आकाश, पाताल और दसों दिशाओं में फैलकर सारे ब्रम्हाण्ड में भर गया । भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मुर दैत्य का त्रिशूल गरुड़ की ओर बड़े वेग से आ रहा है। तब अपना हस्तकौशल दिखाकर फुर्ती से उन्होंने दो बाण मारे, जिनसे वह त्रिशूल कटकर तीन टूक हो गया। इसके साथ ही मुर दैत्य के मुखों में भी भगवान ने बहुत-से बाण मारे। इससे वह दैत्य अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और उसने भगवान पर अपनी गदा चलायी । परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी गदा के प्रहार से मुर दैत्य की गदा को अपने पास पहुँचने के पहले ही चूर-चूर कर दिया। अब वह अस्त्रहीन हो जाने के कारण अपनी भुजाएँ फैलाकर श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा और उन्होंने खेल-खेल में ही चक्र से उसके पाँचों सिर उतार लिये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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