श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 62 श्लोक 1-12
दशम स्कन्ध: द्विषष्टितमोऽध्यायः(62) (उत्तरार्ध)
उषा-अनिरुद्ध-मिलन
राजा परीक्षित् ने पूछा—महायोगसम्पन्न मुनीश्वर! मैंने सुना है कि यदुवंशशिरोमणि अनिरुद्धजी ने बाणासुर की पुत्री उषा से विवाह किया था और इस प्रसंग में भगवान श्रीकृष्ण और शंकरजी का बहुत बड़ा घमासान युद्ध हुआ था। आप कृपा करके यह वृतान्त विस्तार से सुनाइये ।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! महात्मा बलि की कथा तो तुम सुन ही चुके हो। उन्होंने वामनरूपधारी भगवान को सारी पृथ्वी का दान कर दिया था। उनके सौ लड़के थे। उनमें सबसे बड़ा था बाणासुर । दैत्यराज बलि का औरस पुत्र बाणासुर भगवान शिव की भक्ति में सदा रत रहता था। समाज में उसका बड़ा आदर था। उसकी उदारता और बुद्धिमत्ता प्रशंसनीय थी। उसकी प्रतिज्ञा अटल होती थी और सचमुच वह बात का धनी था । उन दिनों वह परम रमणीय शोणितपुर में राज्य करता था। भगवान शंकर की कृपा से इन्द्रादि देवता नौकर-चाकर की तरह उनकी सेवा करते थे। उसके हजार भुजाएँ थीं। एक दिन जब भगवान शंकर ताण्डवनृत्य कर रहे थे, तब उसने अपने हजार हाथों से अनेकों प्रकार के बाजे बजाकर उन्हें प्रसन्न कर लिया । सचमुच भगवान शंकर बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागतरक्षक हैं। समस्त भूतों के एकमात्र स्वामी प्रभु ने बाणासुर से कहा—‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो।’ बाणासुर ने कहा—‘भगवन्! आप मेरे नगर की रक्षा करते हुए यहीं रहा करें’ ।
एक दिन बल-पौरुष के घमंड में चूर बाणासुर ने अपने समीप ही स्थित भगवान शंकर के चरणकमलों को सूर्य के समान चमकीले मुकुट से छूकर प्रणाम किया और कहा— ‘देवाधिवदेव! आप समस्त चराचर जगत् के गुरु और ईश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। जिन लोगों के मनोरथ अब तक पूरे नहीं हुए थे, उनको पूर्ण करने के लिये आप कल्पवृक्ष हैं । भगवन्! आपने मुझे एक हजार भुजाएँ दी हैं, परन्तु वे मेरे लिये केवल भाररूप हो रही हैं। क्योंकि त्रिलोकी में आपको छोड़कर मुझे अपनी बराबरी का कोई वीर-योद्धा ही नहीं मिलता, जो मुझसे लड़ सके ।
आदिदेव! एक बार मेरी बाहों में लड़ने के लिये इतनी खुजलाहट हुई कि मैं दिग्गजों की ओर चला। परन्तु वे भी डर के मारे भाग खड़े हुए। उस समय मार्ग में अपनी बाहों की चोट से मैंने बहुत से पहाड़ों को तोड़-फोड़ डाला था’ । बाणासुर की यह प्रार्थना सुनकर भगवान शंकर ने तनिक क्रोध से कहा—‘रे मूढ़! जिस समय तेरी ध्वजा टूटकर गिर जायगी, उस समय मेरे ही समान युद्धा से तेरा युद्ध होगा और वह युद्ध तेरा घमंड चूर-चूर कर देगा’। परीक्षित्! बाणासुर की बुद्धि इतनी बिगड़ गयी थी कि भगवान शंकर की बात सुनकर उसे बड़ा हर्ष हुआ और वह अपने घर लौट गया। अब वह मूर्ख भगवान शंकर के आदेशानुसार उस युद्ध की प्रतीक्षा करने लगा, जिसमें उसके बल-वीर्य का नाश होने वाला था ।
परीक्षित्! बाणासुर की एक कन्या थी, जिसका नाम था उषा। अभी वह कुमारी ही थी कि एक दिन स्वप्न में उसने देखा कि ‘परम सुन्दर अनिरुद्धजी के साथ मेरा समागम हो रहा है।’ आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसने अनिरुद्धजी को न तो कभी देखा था और न ही सुना ही था ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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