श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 37-45

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द्वादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः (3)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: तृतीयोऽध्यायः श्लोक 37-45 का हिन्दी अनुवाद

प्रिय परीक्षित्! कलियुग के मनुष्य बड़े ही लम्पट हो जाते हैं, वे अपनी कामवासना को तृप्त करने के लिये ही किसी से प्रेम करते हैं। वे विषय वासना के वशीभूत होकर इतने दीन हो जाते हैं कि माता-पिता, भाई-बन्धु और मित्रों को भी छोड़कर केवल अपनी साली और सालों से ही सलाह लेने लगते हैं । शूद्र तपस्वियों का वेष बनाकर अपना पेट भरते और दान लेने लगते हैं। जिन्हें धर्म का रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, वे ऊँचें सिंहासन पर विराजमान होकर धर्म का उपदेश करने लगते हैं । प्रिय परीक्षित्! कलियुग की प्रजा सूखा पड़ने के कारण अत्यन्त भयभीत और आतुर हो जाती है। एक तो दुर्भिक्ष और दूसरे शासकों की कर-वृद्धि! प्रजा के शरीर में केवल अस्तिपंजर और मन में केवल उद्वेग शेष रह जाता है। प्राण-रक्षा के लिये रोटी का टुकड़ा मिलना भी कठिन हो जाता है । कलियुग में प्रजा शरीर ढकने के लिये वस्त्र और पेट की ज्वाला शान्त करने के लिये रोटी, पीने के लिये पानी और सोने के लिये दो हाथ जमीन से भी वंचित हो जाती है। उसे दाम्पत्य-जीवन, स्नान और आभूषण पहनने तक सुविधा नहीं रहती। लोगों की आकृति, प्रकृति और चेष्टाएँ पिशाचों की-सी हो जाती हैं । कलियुग में लोग, अधिक धन की तो बात ही क्या, कुछ कौड़ियों के लिये आपस में वैर-विरोध करने लगते और बहुत दिनों के सद्भाव तथा मित्रता को तिलांजलि दे देते हैं। इतना ही नहीं, वे दमड़ी-दमड़ी के लिये अपने सगे-सम्बन्धियों तक की हत्या कर बैठते और अपने प्रिय प्राणों से भी हाथ धो बैठते हैं । परीक्षित्! कलियुग के क्षुद्र प्राणी केवल कामवासना की पूर्ति और पेट भरने की धुन में ही लगे रहते हैं। पुत्र अपने बूढ़े माँ-बाप की रक्षा—पालन-पोषण नहीं करते, उनकी उपेक्षा कर देते हैं और पिता अपने निपुण-से-निपुण, सब कामों में योग्य पुत्रों की भी परवा नहीं करते, उन्हें अलग कर देते हैं । परीक्षित्! श्रीभगवान ही चराचर जगत् के परम पिता और परम गुरु हैं। इन्द्र-ब्रम्हा आदि त्रिलोकाधिपति उनके चरणकमलों में अपना सिर झुकाकर सर्वस्व समर्पण करते रहते हैं। उनका ऐश्वर्य अनन्त है और वे एकरस अपने स्वरुप में स्थित हैं। परन्तु कलियुग में लोगों में इतनी मूढ़ता फैल जाती है, पाखण्डियों के कारण लोगों का चित्त इतना भटक जाता है कि प्रायः लोग अपने कर्म और भावनाओं के द्वारा भगवान की पूजा से भी विमुख हो जाते हैं । मनुष्य करने के समय आतुरता की स्थिति में अथवा गिरते या फिसलते समय विवश होकर भी यदि भगवान के किसी एक नाम का उच्चारण कर ले, तो उसके सारे कर्मबन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और उसे उत्तम-से-उत्तम गति प्राप्त होती है। परन्तु हाय रे कलियुग! कलियुग से प्रभावित होकर लोग उन भगवान की आराधना से भी विमुख हो जाते हैं । परीक्षित्! कलियुग के अनेकों दोष हैं। कल वस्तुएँ दूषित हो जाती हैं, स्थानों में भी दोष की प्रधानता हो जाती है। सब दोषों का मूल स्त्रोत तो अन्तःकरण है ही, परन्तु जब पुरुषोत्तम भगवान ह्रदय में आ विराजते हैं, तब उनकी सन्निधिमात्र से ही सब-के-सब दोष नष्ट हो जाते हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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