श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 1-12
द्वादश स्कन्ध: नवमोऽध्यायः (9)
मार्कण्डेयजी का माया-दर्शन सूतजी कहते हैं—जब ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेयजी मुनि ने इस प्रकार स्तुति की, तब भगवान नर-नारायण ने प्रसन्न होकर मार्कण्डेयजी से कहा । भगवान नारायण ने कहा—सम्मान्य ब्रम्हर्षि-शिरोमणि! तुम चित्त की एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, संयम और मेरी अनन्य भक्ति से सिद्ध हो गये हो । तुम्हारे इस आजीवन ब्रम्हचर्य-व्रत की निष्ठा देखकर हम तुम पर बहुत ही प्रसन्न हुए हैं। तुम्हारा कल्याण हो! मैं समस्त वर देने वालों का स्वामी हूँ। इसलिये तुम अपना अभीष्ट वर मुझसे माँग लो । मार्कण्डेयजी मुनि ने कहा—देवदेवेश! शरणागत-भयहारी अच्युत! आपकी जय हो! जय हो! हमारे लिये बस इतना ही वर पर्याप्त है कि आपने कृपा करके अपने मनोहर स्वरुप का दर्शन कराया । ब्रम्हा-शंकर आदि देवगण योग-साधना के द्वारा एकाग्र हुए मन से ही आपके परम सुन्दर श्रीचरणकमलों का दर्शन प्राप्त करके कृतार्थ हो गये हैं। आज उन्हीं आपने मेरे नेत्रों के सामने प्रकट होकर मुझे धन्य बनाया है । पवित्रकीर्ति महानुभावों के शिरोमणि कमलनयन! फिर भी आपकी आज्ञा के अनुसार मैं आपसे वर माँगता हूँ। मैं आपकी वह माया देखना चाहता हूँ, जिससे मोहित होकर सभी लोक और लोकपाल अद्वितीय वस्तु ब्रम्ह में अनेकों प्रकार के भेद-विभेद देखने लगते हैं । सूतजी कहते हैं—शौनकजी! जब इस प्रकार मार्कण्डेयजी मुनि ने भगवान नर-नारायण की इच्छानुसार स्तुति-पूजा कर ली एवं वरदान माँगा लिया, तब उन्होंने मुसकराते हुए कहा—‘ठीक है, ऐसा ही होगा।’ इसके बाद वे अपने आश्रम बदरीवन को चले गये । मार्कण्डेयजी मुनि अपने आश्रम पर ही रहकर निरन्तर इस बात का चिन्तन करते रहते कि मुझे माया के दर्शन कब होंगे। वे अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं अन्तःकरण में—और तो क्या, सर्वत्र भगवान का ही दर्शन करते हुए मानसिक वस्तुओं से उनका पूजन करते रहते। कभी-कभी तो उनके ह्रदय में प्रेम की ऐसी बाढ़ आ जाती कि वे उसके प्रवाह में डूबने-उतराने लगते, उन्हें इस बात की भी याद न रहती कि कब कहाँ किस प्रकार भगवान की पूजा करनी चाहिये ? शौनकजी! एक दिन की बात है, सन्ध्या के समय पुष्पभद्रा नदी के तट पर मार्कण्डेयजी मुनि भगवान की उपासना में तन्मय हो रहे थे। ब्रम्हन्! उसी समय एकाएक बड़े जोर की आँधी चलने लगी । उस समय आँधी के कारण बड़ी भयंकर आवाज होने लगी और बड़े विकराल बादल आकाश में मँडराने लगे। बिजली चमक-चमककर कड़कने लगी और और रथ के धुरे के समान जल की मोटी-मोटी धाराएँ पृथ्वी पर गिरने लगीं । यही नहीं, मार्कण्डेयजी मुनि को ऐसा दिखायी पड़ा कि चारों ओर से समुद्र समूची पृथ्वी को निगलते हुए उमड़े आ रहे हैं। आँधी के वेग से समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही हैं, बड़े भयंकर भँवर पड़ रहे हैं और भयंकर ध्वनि कान फाड़े डालती है। स्थान-स्थान पर बड़े-बड़े मगर उछल रहे हैं ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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