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पत्तियों की कोशिकाओं में हरे रंग के कण, जिन्हें हरिताणु (Chloroplast) कहते हैं, पाए जाते हैं। इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से इन कणों को देखने पर बहुत से ग्रैना दिखाई पड़ते हैं, जो सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित कर देते हैं। | पत्तियों की कोशिकाओं में हरे रंग के कण, जिन्हें हरिताणु (Chloroplast) कहते हैं, पाए जाते हैं। इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से इन कणों को देखने पर बहुत से ग्रैना दिखाई पड़ते हैं, जो सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित कर देते हैं। | ||
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| न्यूक्लिओप्रोटीन || | | न्यूक्लिओप्रोटीन || ३2.2 | ||
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| न्यूक्लिइक अम्ल || | | न्यूक्लिइक अम्ल || 2.५ | ||
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| उदासीन वसा || ४.८ | | उदासीन वसा || ४.८ | ||
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०७:२२, १४ अगस्त २०११ का अवतरण
जीवद्रव्य
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 2-3 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | रामदेव मिश्र |
वनस्पति और प्राणिजगत् में कायिक निर्माण की इकाई कोशिका है। यह सूक्ष्मदर्शक यंत्र से दिखाई पड़ती है। कोशिका का आधार जीवद्रव्य है और इसी के आधार पर जीव जीवित रहता है। उत्तेजन, चलन, चयापचय, वृद्धि, प्रजनन और अनुकूलन जीवद्रव्य के प्रमुख गुण हैं। इन्हें समझने के लिये जीवद्रव्य की भौतिक और रासायनिक रचना का अध्ययन आवश्यक है।
भौतिक गुण
सूक्ष्मदर्शक यंत्र में जीवद्रव्य गाढ़ा, तरल, रंगविहीन और पारदर्शी दिखाई देता है। न्यून प्रकाशक्षेत्र में यह दानेदार प्रतीत होता है। इसके मध्य में एक गोलाकार केंद्र और उसके भी मध्य में एक या अधिक केंद्रक दिखाई देते हैं। इनका गाढ़ापन कोशिका द्रव्य के गाढ़ेपन से अधिक होता है।[१] कोशिकाद्रव्य के अंतर्गत एक या अधिक रसधानियाँ होती हैं, जिनमें कोशिकारस कोशिकाद्रव्य की झिल्ली से घिरा रहता है। इसे द्रव्यझिल्ली अथवा अंतर्द्रव्य, कहते हैं। ऐसे ही बाहर की झिल्ली, अथवा बहिर्द्रव्य कोशिका को सीमित करता है। वनस्पतियों में बहिर्द्रव्य कोशिकाभित्ति से संलग्न होता है।[२] इन दोनों झिल्लियों का महत्व कोशिका में जल और विलेयों (solutes) के गमनागमन को नियंत्रित करने में है।
वानस्पतिक कोशिकाओं में घटन (Plastid) - आदिघटन, वर्णघटन और वर्णहीन घटन - भी पाए जाते हैं। ये जीवद्रव्य के गाढ़े, चपटे प्रत्यंग हैं, जो पोषाहार बनाने और उसे सुरक्षित रखने का कार्य करते हैं।
सूक्ष्मदर्श के तेल लक्षककाच (oil immersion objective lens) द्वारा[३] जीवद्रव्य में अनेक दंडाकार अथवा दानेदार, कणाभ देखे जा सकते हैं। इनमें श्वसन के ऐंज़ाइमों की प्रधानता पाई जाती है। जंतु कोशिकाओं में केंद्र के समीप ताराभ केंद्र भी होता है, जो कोशिकाविभाजन में सूत्रों को व्यवस्थित रखता है।
पत्तियों की कोशिकाओं में हरे रंग के कण, जिन्हें हरिताणु (Chloroplast) कहते हैं, पाए जाते हैं। इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से इन कणों को देखने पर बहुत से ग्रैना दिखाई पड़ते हैं, जो सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित कर देते हैं।
इन जीवित प्रत्यंगों के अतिरिक्त स्टार्च और प्रोटीन के कण तथा तैलीय बूँदें भी जीवद्रव्य में मिलती हैं। ये खाद्य पदार्थ हैं, जिनसे जीवद्रव्य का पोषण होता है। कोशिकाद्रव्य के अंतर्गत ये सभी जीवित और निर्जीव वस्तुएँ कोशिकाद्रव्य पर अवलंबित होने के कारण उसी के साथ घूमती रहती हैं। घूमने की गति जीवद्रव्य के गाढ़ापन पर निर्भर है, जो गरमी पाकर घटता है और सर्दी में बढ़ता है। जीवद्रव्य प्रत्यास्थ (elastic) और चिपचिपा पदार्थ हैं।
रासायनिक संघटन
जीवद्रव्य में ८० से लेकर ९० प्रति शत तक जल रहता है। शेष शुष्क पदार्थ में निम्नलिखित द्रव्य पाए जाते हैं:
कार्बनिक संघटक | प्रतिशत शुष्क पदार्थ |
---|---|
जल विलेय | |
मॉनोसैकराइड | 1४.2 |
प्रोटीन | 2.2 |
ऐमिनो ऐसिड, न्यूरिन तथा ऐस्पैरेजीन | 2४.३ |
जल अविलेय | |
न्यूक्लिओप्रोटीन | ३2.2 |
न्यूक्लिइक अम्ल | 2.५ |
ग्लोबुलिन | ०.५ |
लिपोप्रोटीन | ४.८ |
उदासीन वसा | ४.८ |
फाइटोस्टेरॉल | ३.2 |
फॉस्फेटाइड | 1.३ |
बहुशकर्रा, वर्णक, रेजिन इत्यादि | ३.५ |
खनिज पदार्थ | ४.४ |
कुल जोड़ | ९९.९ |
चयापचय
चयापचय जीवत्व का मुख्य लक्षण है। जीद्रव्य में अनेक रासायनिक क्रियाएँ सदैव होती है। जिन क्रियाओं में छोटे अणुओं से बड़े अणुओं का संश्लेष्ण होता है, वे चयन कहलाती हैं और इसके विपरीत जिनमें बड़े अणु छोटे अणुओं में परिवर्तित हो जाते हैं, वे अपचयन कहलाती हैं। ये सारी जीवरासायनिक अभिक्रियाएँ ऐंज़ाइमों से उत्प्रेरति होती हैं। प्रत्येक विशेष क्रिया विशेष ऐंज़ाइमों पर आधारित हैं। इसलिये प्रत्येक कोश में सहस्रों ऐंज़ाइम होते हैं। सभी ऐंज़ाइमों का आधार प्रोटीन अणु हैं, जिसकी रचना और आकृति पर इनकी विशेषता निर्भर है।
जीवद्रव्य की सक्रियता उसकी बनावट पर अवलंबित हैं। जैसे ईटों के ढेर से किसी भवन के रूपांकन का बोध नहीं हो सकता, वैसे ही केवल रासायनिक संघटकों से जीवद्रव्य का बोध होना असंभव है। जैसे भवन-निर्माण की सामग्री को भिन्न-भिन्न प्रकार से जोड़कर भाँति भाँति के भवन बन सकते हैं, उसी प्रकार जीवद्रव्य के अनेक प्रकार के जोड़ों से विभिन्न प्रकार के प्राणियों की रचना जीवोद्भव द्वारा हुई है।
जीवद्रव्य की उत्पत्ति और जीवोद्भव
ऐसा पता चलता है कि संसार पूर्वावस्था में ऐमोनिया, हाइड्रोजन, कार्बन डाइऑक्साइड, जलवाष्प एवं वातों से आच्छादित था। उस समय अल्ट्रावायोलेट रश्मियों में इनके अणुओं से कार्बनिक यौगिकों का निर्माण हुआ, जिनमें कार्बन परमाणु असममितीय रहा। इससे प्रोटीन अणु बने, जिनमें कुछ में ऐंज़ाइमों की क्षमता आई। ऐसे ही समय में डिसॉक्सिरिबो-न्यूक्लिइक अम्ल, डी. एन. ए., भी बना होगा। डी. एन. ए., भी डी. एन. ए. के अणुओं के साँचों पर ढलकर प्रोटीन अणुओं के निर्माण के लिये साँचे का काम करते हैं।
इन कार्बनिक यौगिकों के संपादन से करोड़ों वर्षों में सागर के जल में कहीं प्रथम जीद्रव्य का प्रादुर्भाव संभव हुआ होगा। जैसे जैसे परिस्थितियाँ बदलती गईं और जीवद्रव्य पर्यावरण से ऊर्जा और द्रव्यों को लेकर चयापचय में सक्रिय रहा, वैसे वैसे चय की क्रिया व्यवस्थित होने पर इसमें पुरुत्पादन की शक्ति आई। ऐसे ही बहुत से एककोशी जीव निर्मित हुए होंगे, जिनमें विभिन्नता आने से अनेक प्रभेदों की उत्पत्ति हुई। पर्यावरण के अनुकूल प्रभेदों की उत्पत्ति बढ़ती गई और ऐसे प्रभेद नष्ट होते गए जिनमें अनुकूल ऐंज़ाइमों का उत्पादन चयापचय के लिये पर्याप्त नहीं था। इस प्राकृतिक वरण (natural selection) की क्रिया से अनुकूलित प्रभेदों की संख्या बढ़ती गई। एककोशी जीवों से बहुकोशी जीवों का होना और लैंगिक प्रजनन का विकास, जीवोद्भव के मुख्य साधन हैं।
विषाणु, जीवाणु और जीवद्रव्य का पुनरुत्पादन
जीवद्रव्य सबसे थोड़ी मात्रा में जीवाणु (बैक्टीरियम) में पाया जाता है। जीवाणु ८ म्यू[४] से कम लंबा और ०.५ म्यू से कम चौड़ा होता है। पर इस सूक्ष्म मात्रा में भी जीवद्रव्य द्वारा सभी क्रियाएँ सफलतापूर्व संपन्न होती रहती है। विषाणु (वाइरस) न्यूक्लिओ-प्रोटीनों से आवृत न्यूक्लिइक अम्ल का सबसे छोटा टुकड़ा है, पर इसमें स्वयं चयापचय की शक्ति नहीं है। यह प्राणियों के शरीर में ही उनके ऐंज़ाइमों की सहायता से सक्रिय होता है।
पहले ऐसा विचार था कि अनुकूल परिस्थितियों में जीवहीन द्रव्यों से सूक्ष्म जीवों का उत्पादन स्वयंमेव हो जाता है। पर लुई पैस्टर ने प्रयोगों द्वारा इसे असंभव सिद्ध कर दिया। अब इसमें संदेह नहीं रहा कि जीवद्रव्य आदिसृष्टि में एक ही समय में बना और इसी से प्रजनन और जीवोद्भव द्वारा समय समय पर अनेक प्रकार की वनस्पतियाँ और पशु उत्पन्न हुए।
जीवद्रव्य के प्रत्यंग, जैसे केंद्रक या न्यूक्लियस, घटन इत्यादि, पूर्वज प्रत्यंगों से ही कोशिका विभाजन के समय विभाजित होकर अन्य कोशिकाओं में पाए जाते हैं। कोशिका के साथ ही इन प्रत्यंगों का भी संवर्धन होता रहता है।
जीवद्रव्य की क्रियाएँ और उनके आधार
जीवद्रव्य की सक्रियता इसकी भौतिक और रासायनिक संरचना से ही नहीं समझी जा सकती। इसका वास्तु या अभिकल्पना अत्यंत जटिल है। इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी द्वारा जीवद्रव्य ५० हजार से लेकर ८० हजार तक आवर्धित दिखाई देता है। इसमें अति सूक्ष्म दाने, झिल्लियाँ और तंतु दिखाई पड़ते हैं, जो बार बार बनते और बिगड़ते रहते हैं। इसका प्रतिरूप (pattern) प्रत्यास्थ कलिल का है, जो सॉल और जेल में परिवर्तित होता रहता है। इसमें संरचनात्मक प्रोटीन अणुओं की सतह पर अधिशोषित (absorbed) अयों (ions) द्वारा विजातीय (heterogeneous) रासायनिक क्रियाएँ उत्प्रेरित (catalysed) हाती हैं। इस संहति के अंतरालीय स्थान जलीय विलयन से भरे होते हैं, जिनमें सोडियम, पोटासियम, कैल्सियम प्रभृति आयनों का अधिक महत्व है।
जीवन मरण
ऊपर दी गई व्याख्या के अनुसार जीवद्रव्य भौतिक-रासायनिक (physico-chemical) संघटन होता है, जिससे चयापचय की रासायनिक क्रियाएँ ऐंज़ाइमों द्वारा सुव्यवस्थित रूप से चलती रहती हैं। इन क्रियाओं को जारी रखने के लिये जीवद्रव्य पर्यावरण से ऊर्जा और रसायनकों का शोषण करता है। इनको संयोजित कर चय विधियों द्वारा आत्मीकरण होता है, जिससे टूट फूट में नष्ट हुए जीवद्रव्य के कण फिर से निर्मित होते रहते हैं। जीवद्रव्य की क्रियाशीलता के लिये ऊर्जा आवश्यक है, जो अपचय क्रियाओं द्वारा जटिल अणुओं के क्षय से मिलती रहती है। ये सारी रासायनिक क्रियाएँ ऐंज़ाइमों द्वारा संचालित होती हैं।
संभवत: जीवद्रव्य का सभी भाग आत्मीकरण से नया नहीं हो पाता, जिससे कोशिका जीर्ण हो जाती है। फलस्वरूप रासायनिक क्रियाओं की व्यवस्था में बाधाएँ आ जाती हैं और उनका क्रम बिगड़ने पर ऐंज़ाइमों का आत्मलयन (autolysis) होता है। इस भाँति चयापचय की विधियों के ्ह्रास होने से जीवन की समाप्ति होती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ