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अपरा विद्या
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 137 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | बलदेव उपाध्याय । |
अपरा उपनिषद् की दृष्टि में अपरा विद्या निम्न श्रेणी का ज्ञान मानी जाती हैं। मुंडक उपनिषद् (1/1/4) के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है-
(1) परा विद्या (श्रेष्ठ ज्ञान) जिसके द्वारा अविनाशी ब्राह्मतत्व का ज्ञान प्राप्त होता है (सा परा, यदा तदक्षरमधिगम्यते),
(2) अपरा विद्या के अंतर्गत वेद तथा वेदांगों के ज्ञान की गणना की जाती है।
उपनिषद् का आग्रह परा विद्या के उपार्जन पर ही है। ऋग्वेद आदि चारों वेदों तथा शिक्षा, व्याकरण आदि छहों अंगों के अनुशीलन का फल क्या है ? केवल बाहरी, नश्वर, विनाशी वस्तुओं का ज्ञान, जो आत्मतत्व की जानकारी में किसी तरह सहायक नहीं होता। छांदोग्य उपनिषद् (7/1/2-3) में नारद-सनत्कुमार-संवाद मे भी इसी पार्थक्य का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। मंत्रविद् नारद सकल शास्त्रों मे पंडित हैं, परंतु आत्मविद् न होने से वे शोकग्रस्त हैं। मन्त्रविदेवास्मि नात्मवित्... रिति शोक-मात्मवित्। अत: उपनिषदों का स्पष्ट मंतव्य है कि अपरा विद्या का अभ्यास करना चाहिए जिससे इसी जन्म में, इसी शरीर से आत्मा का साक्षात्कार हो जाए (केन 2/23) यूनानी तत्वज्ञ भी इसी प्रकार का भेद-दोक्सा तथा एपिस्टेमी-मानते थे जिनमें से प्रथम साधारण विचार का तथा द्वितीय सत्य क संकेतक माना जाता था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ