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१२:४६, ४ सितम्बर २०१४ के समय का अवतरण
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कपोत
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 401-402 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1975 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | सुरेश सिंह |
कपोत कोलंबिडी गण के प्रसिद्ध पक्षी हैं। इनकी दो जंगली जातियों-नील शैलकपोत (ब्लू रॉक पिजन, Blue rock pigeon) तथा शैल कपोतक (रॉक डव, कोलंबिडस पालंबस) से मनुष्यों ने बहुत सी पालतू जातियाँ निकाली हैं, जो चार श्रेणियों में विभक्त की जा सकती हैं :
बुद्बुदक कपोत (पाउटर)
जिनकी ग्रासनली (गलेट) बड़ी और अन्नग्रह (क्रॉप) से अलग रहती है। अन्नग्रह को फुलाकर ये बड़ा कर सकते हैं।
वाहक कपोत (कैरियर)
जिनमें तीन प्रकार के कपोत बहुत प्रसिद्ध हैं : (क) साधारण वाहक, जिनकी चोंच लंबी और आँख का घेरा नंगा रहता है। (ख) विराट्, जिनका कद बड़ा और चोंच लंबी तथा भारी होती है। (ग) कंटक (बार्ब्स), जिनकी चोंच छोटी और आँख का घेरा नंगा रहता है। इसकी बहुतेरी उपजातियाँ फैली हुई हैं।
त्यजनपुच्छ (फैनटेल)
जिनमें चार तरह के कपोत प्रसिद्ध हैं : (क) टरबिट और उलूक (आउल), जिनकी चोंच छोटी और मोटी तथा गले के पंख तिरछे रहते हैं। (ख) गिरहबाज (टंबलर), जो उड़ते-उड़ते उलटकर कलैया खाते रहते हैं। (ग) झल्लरीपृष्ठ (फ्ऱलबैक), जो अपनी पूँछ के पंख ऊपर की ओर छत्राकार उठा सकते हैं। साधारण बोलचाल में इन्हें लक्का कहते हैं। (घ) जैकोबिन, (Jacobin) जिनके गले में पंख कंठेनुमा उभरे रहते हैं।
श्रृंगवाकु (ट्रंपेटर)
जिनके गले के नीचे के पंख आगे की ओर घूमे रहते हैं। इनकी बोली बहुत कर्कश होती है।
लगभग ३,००० ई.पू. से मनुष्यों द्वारा कबूतरों के पालने का पता (मिस्र देश की भित्तिचित्रों से) चलता है। उसके बाद ईरान, बगदाद तथा अरब के अन्य देशों में भी कबूतर पालने का प्रचलन था। सन् १८४८ की फ्रांस की क्रांति में कबूतरों का उपयोग संदेशवाहक के रूप में किया गया था। विज्ञान के इस युग में भी इनकी उपयोगिता कम नहीं हुई है और इनकी टाँगों अथवा पीठ पर एक पोली नली में पत्र रखकर आज भी लड़ाई में इनका उपयोग होता है। शांतिदूत के रूप में भी सफेद कबूतर उड़ाए जाते हैं।
संसार भर में बेलजियम कबूतरों का सबसे अधिक शौकीन देश है। वहाँ इनकी उड़ान पर घोड़ों की समान बाजी लगती है। लगभग सभी गाँवों में कबूतरों के क्लब स्थापित हैं। हमारे देश में भी गिरहबाज, लक्का, मुक्खीलोटन, अंबरसरे, चीना, शिराजी, गोला आदि अनेक जातियों के कबूतरों को शौकीन लोग पालते हैं।
जंगली कबूतरों में नीलशैल जाति संसार के प्राय: सभी देशों में फैली हुई, यह लगभग १५ इंच लंबा सिलेटी रंग का पक्षी है जिसके नर तथा मादा एक जैसे होते हैं। ये दाना और बीज चुगनेवाले पक्षी हैं जो झुंडों में रहते हैं। मादा साल में दो बार भूमि पर या किसी छेद में घोंसले के नाम पर दो चार तिनके रखकर दो सफेद अंडे देती है। बच्चे कुछ दिनों तक बिना पंख के असहाय रहते हैं। उनके मुँह में अपनी चोंच डालकर माँ बाप एक प्रकार का रस भर देते हैं जो उसके शरीर के भीतर की अन्नग्रह थैली में एकत्र हो जाता है और सुगमता से पचता है।
इनके अतिरिक्त न्यूगिनी के विशाल किरीटधारी कबूतर (जायंट क्राउंड पिजन) भी कम प्रसिद्ध नहीं हैं। ये कद में सबसे बड़े होते हैं और इनके सिर पर पंखीनुमा कलँगी सी रहती है।
एक अन्य जाति, निकोबार कबूतर, भी बहुत प्रसिद्ध है। यह अपने गले की लंबे पंखों की हँसली के कारण बड़ी आसानी से पहचाना जाता है। इसके शरीर के भीतर की पेषणी (गिज़र्ड) भी विचित्र होती है।
एक अन्य जाति के कबूतर सन् १९१४ ई. तक पाए जाते थे, परंतु अब वे पृथ्वी से लुप्त हो गए हैं। ये यात्री कबूतर (पैसेंजर पिजन) कहलाते थे। जब ये हजारों के बड़े-बड़े समूहों में उड़ते थे तो आकाश काला हो जाता था। ये फाख्ता (पंडुक) के बराबर होते थे और इनका रंग गाढ़ा सिलेटी तथा पूँछ लंबी होती थी।
कबूतरों के ही वर्ग के हारिल भी चिरपरिचित पक्षी हैं जो हरे और धानी रंग के तथा बहुत सुंदर होते हैं। इनकी कई जातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें 'कोकला' सबसे प्रसिद्ध है। ये सब अपने स्वादिष्ट मांस के लिए भी प्रसिद्ध हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ