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''' | '''रडार (Radar)''' | ||
एक यंत्र है, जिसकी सहायता से रेडियो तरंगों का उपयोग दूर की वस्तुओं का पता लगाने में तथा उनकी स्थिति, अर्थात् दिशा और दूरी, ज्ञात करने के लिए किया जाता है। आँखों से जितनी दूर दिखाई पड़ सकता है, | एक यंत्र है, जिसकी सहायता से रेडियो तरंगों का उपयोग दूर की वस्तुओं का पता लगाने में तथा उनकी स्थिति, अर्थात् दिशा और दूरी, ज्ञात करने के लिए किया जाता है। आँखों से जितनी दूर दिखाई पड़ सकता है, रडार द्वारा उससे कहीं अधिक दूरी की चीजों की स्थिति का सही पता लगाया जा सकता है। कोहरा, धुंध, वर्षा, हिमपात, धुँआ अथवा अँधेरा, इनमें से कोई भी इसमें बाधक नहीं होते। किंतु रडार आँख की पूरी बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि इससे वस्तु के रंग तथा बनावट का सूक्ष्म ब्योरा नहीं जाना जा सकता, केवल आकृति का आभास होता है। पृष्ठभूमि से विषम तथा बड़ी वस्तुओं का, जैसे समुद्र पर तैरते जहाज, ऊँचे उड़ते वायुयान, द्वीप, सागरतट इत्यादि का, रडार द्वारा बड़ी अच्छी तरह से पता लगाया जा सकता है। | ||
सन् १८८६ में रेडियो तरंगों के आविष्कर्ता, हाइनरिख हेर्ट्स ने ठोस वस्तुओं से इन तरंगों का परावर्तन होना सिद्ध किया था। रेडियो स्पंद (pulse) के परावर्तन द्वारा परासन, अर्थात् दूरी का पता लगाने, का कार्य सन् १९२५ में किया जा चुका था और सन् १९३० तक | सन् १८८६ में रेडियो तरंगों के आविष्कर्ता, हाइनरिख हेर्ट्स ने ठोस वस्तुओं से इन तरंगों का परावर्तन होना सिद्ध किया था। रेडियो स्पंद (pulse) के परावर्तन द्वारा परासन, अर्थात् दूरी का पता लगाने, का कार्य सन् १९२५ में किया जा चुका था और सन् १९३० तक रडार के सिद्धांत का प्रयोग करनेवाले कई सफल उपकरणों का निर्माण हो चुका था, किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध में ही रडार का प्रमुख रूप से उपयोग आरंभ हुआ। | ||
== स्थितिनिर्धारण की पद्धति == | == स्थितिनिर्धारण की पद्धति == | ||
रडार से रेडियो तरंगें भेजी जाती हैं और दूर की वस्तु से परावर्तित होकर उनके वापस आने में लगनेवाले समय को नापा जाता है। रेडियो तरंगों की गति १,८६,००० मील प्रति सेकंड है, इसलिए समय ज्ञात होने पर परावर्तक वस्तु की दूरी सरलता से ज्ञात हो जाती है। रडार में लगे उच्च दिशापरक ऐंटेना (antenna) से परावर्तक, अर्थात् लक्ष्य वस्तु, की दिशा का ठीक ठीक पता चल जाता है। दूरी और दिशा मालूम हो जाने से वस्तु की यथार्थ स्थिति ज्ञात हो जाती है। | |||
राडार का प्रेषित्र (transmitter) नियमित अंतराल पर रेडियो ऊर्जा के क्षणिक, किंतु तीव्र, स्पंद भेजता रहता है। प्रेषित स्पंदों के अंतरालों के बीच के समय में | राडार का प्रेषित्र (transmitter) नियमित अंतराल पर रेडियो ऊर्जा के क्षणिक, किंतु तीव्र, स्पंद भेजता रहता है। प्रेषित स्पंदों के अंतरालों के बीच के समय में रडार का ग्राही (receiver), यदि बाहरी किसी वस्तु से परावर्तित होकर तरंगें आवें तो उनकी ग्रहण करता है। परावर्तन होकर वापस आने का समय विद्युत् परिपथों द्वारा सही सही मालूम हो जाता है और समय के अनुपात में अंकित सूचक से दूरी तुरंत मालूम हो जाती है। एक माइक्रोसेकंड (सेकंड का दसलाखवाँ भाग) के समय से १६४ गज और १०.७५ माइक्रोसेकंड से १ मील की दूरी समझी जाती है। कुछ रडार १०० मील दूर तक की वस्तुओं का पता लगा लेते हैं। अच्छे यंत्रों से दूरी नापने में १५ गज से अधिक की भूल नहीं होती और दूरी के कम या अधिक होने पर इस नाप की यथार्थता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। लक्ष्य वस्तु की दिशा अथवा उसकी ऊँचाई का कोण एक अंश के ०.०६ भाग तक परिशुद्ध नापा जा सकता है। रडार के ग्राही यंत्र की ऋणाय-किरण-नली (cathod ray tube) में वस्तु की स्थिति स्पष्ट दिखाई पड़ती है। | ||
== दिशा का ज्ञान == | == दिशा का ज्ञान == | ||
लक्ष्य का पता लगाने के लिए ऐंटेना को घुमाते, या आगे पीछे करते हैं। जब ऐंटेना लक्ष्य की दिशा में होता हैं, तब लक्ष्य का प्रतिरूप त्रृणाग्र-किरण-नली के फलक पर प्रकट होता है। इस प्रतिरूप को पिप (Pip) कहते हैं। पिप सबसे अधिक स्पष्ट तभी होता है, जब ऐंटेना सीधे लक्ष्य की दिशा में होता है। | लक्ष्य का पता लगाने के लिए ऐंटेना को घुमाते, या आगे पीछे करते हैं। जब ऐंटेना लक्ष्य की दिशा में होता हैं, तब लक्ष्य का प्रतिरूप त्रृणाग्र-किरण-नली के फलक पर प्रकट होता है। इस प्रतिरूप को पिप (Pip) कहते हैं। पिप सबसे अधिक स्पष्ट तभी होता है, जब ऐंटेना सीधे लक्ष्य की दिशा में होता है। रडार के ऐंटेना अत्युच्च दिशापरक होते हैं। ये रेडियोतरंगों को सकरी किरणपुंजों में एकाग्र करते हैं तथा यंत्र में लगे विशेष प्रकार के परावर्तक इन किरणपुंजों को सघन बनाते हैं। रडार के कार्य के लिए अति लघु तरंगदैर्ध्य वाली, अर्थात् अत्युच्च आवृत्तियों की, तरंगों का उपयोग होता है। इन सूक्ष्म तरंगों के उत्पादन के लिए भल्टिकैविटी मैग्नेट्रॉन (Multicavity Magnetron) नामक उपकरण आवश्यक है, जिसके बिना आधुनिक रडार का कार्य संभव नहीं है। | ||
[[चित्र:Radar Launcher.jpg| thumb|300px]] | [[चित्र:Radar Launcher.jpg| thumb|300px]] | ||
== राडार के अवयव == | == राडार के अवयव == | ||
प्रत्येक राडार हैं : (१) मॉडुलेटर (modulator) से रेडियो-आवृत्ति दोलित्र (radio frequency oscillator) को दिए जानेवाली विद्युत् शक्ति के आवश्यक विस्फोट प्राप्त होते हैं; (२) रेडियो-आवृत्ति दोलित्र उच्च आवृत्तिवाली शक्ति के उन स्पंदों को उत्पन्न करता है जिनसे | प्रत्येक राडार हैं : (१) मॉडुलेटर (modulator) से रेडियो-आवृत्ति दोलित्र (radio frequency oscillator) को दिए जानेवाली विद्युत् शक्ति के आवश्यक विस्फोट प्राप्त होते हैं; (२) रेडियो-आवृत्ति दोलित्र उच्च आवृत्तिवाली शक्ति के उन स्पंदों को उत्पन्न करता है जिनसे रडार के संकेत बनते हैं, (३) ऐंटेना द्वारा ये स्पंद आकाश में भेजे जाते हैं और ऐंटेना ही उन्हें वापसी में ग्रहण करता है, (४) ग्राही वापस आनेवाली रेडियोतरंगों का पता पाता है तथा (५) सूचक (indicator) रडार परिचालक को रेडियोतरंगों द्वारा एकत्रित की गई सूचनाएँ देता है। तुल्यकालन (synchronisation) तथा परास की माप के अनिवर्य कृत्य मॉडुलेटर तथा सूचक द्वारा संपन्न होते हैं। यों तो जिस विशेष कार्य के लिए रडार यंत्र का उपयोग किया जानेवाला है, उसके अनुरूप इसके प्रमुख अवयवों को भी बदलना आवश्यक होता है। | ||
== | == रडार के उपयोग == | ||
रडार के कारण युद्ध में सहसा आक्रमण प्राय: असंभव हो गया है। इसके द्वारा जहाजों वायुयानों और रॉकेटों के आने की पूर्वसूचना मिल जाती है। धुंध, अँधेरा आदि इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकते और अदृश्य वस्तुओं की दूरी, दिशा आदि ज्ञात हो जाती हैं। वायुयानों पर भी रडार यंत्रों से आगंतुक वायुयानों का पता चलता रहता है तथा इन यंत्रों की सहायता से आक्रमणकारी विमान लक्ष्य तक जाने और अपने स्थान तक वापस आने में सफल होते हैं। केंद्रीय नियंत्रक स्थान से रडार के द्वारा २०० मील के व्यास में चतुर्दिक्, ऊपर और नीचे, आकाश में क्या हो रहा है, इसका पता लगाया जा सकता है। रात्रि या दिन में समुद्र के ऊपर निकली पनडुब्बी नौकाओं का, या आते जाते जहाजों का, पता चल जाता है तथा दुश्मन के जहाजों पर तोपों का सही निशाना लगाने में भी इससे सहायता मिलती है। | |||
शांति के समय में भी | शांति के समय में भी रडार के अनेक उपयोग हैं। इसने नौका, जहाज, या वायुयानचालन को अधिक सुरक्षित बना दिया है, क्योंकि इसके द्वारा चालकों को दूर स्थित पहाड़ों, हिमशैलों अथवा अन्य रुकावटों का पता चल जाता है। रडार से वायुयानों को पृथ्वी तल से अपनी सही ऊँचाई ज्ञात होती रहती है तथा रात्रि में हवाई अड्डों पर उतरने में बड़ी सहूलियत होती है। १० जनवरी, १९४६ ई. को संयुक्त राज्य, अमरीका, के सैनिक संकेत दल (Army Signal Corps) ने रडार द्वारा सर्वप्रथम चंद्रमा से संपर्क स्थापित किया। रेडियो संकेत को चंद्रमा तक आने जाने में ४,५०,००० मील की यात्रा करनी पड़ी और २.४ सेकंड समय लगा। यह प्रयोग महत्व का था और आशा की जाती है कि इससे ज्योतिष विज्ञान के क्षेत्र में नए तकनीकों का प्रादुर्भाव होगा। | ||
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११:४९, १३ फ़रवरी २०१५ के समय का अवतरण
चित्र:Tranfer-icon.png | यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें |
रडार
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 10 |
पृष्ठ संख्या | 179-180 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | रामप्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1968 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | भगवानदास वर्मा |
रडार (Radar)
एक यंत्र है, जिसकी सहायता से रेडियो तरंगों का उपयोग दूर की वस्तुओं का पता लगाने में तथा उनकी स्थिति, अर्थात् दिशा और दूरी, ज्ञात करने के लिए किया जाता है। आँखों से जितनी दूर दिखाई पड़ सकता है, रडार द्वारा उससे कहीं अधिक दूरी की चीजों की स्थिति का सही पता लगाया जा सकता है। कोहरा, धुंध, वर्षा, हिमपात, धुँआ अथवा अँधेरा, इनमें से कोई भी इसमें बाधक नहीं होते। किंतु रडार आँख की पूरी बराबरी नहीं कर सकता, क्योंकि इससे वस्तु के रंग तथा बनावट का सूक्ष्म ब्योरा नहीं जाना जा सकता, केवल आकृति का आभास होता है। पृष्ठभूमि से विषम तथा बड़ी वस्तुओं का, जैसे समुद्र पर तैरते जहाज, ऊँचे उड़ते वायुयान, द्वीप, सागरतट इत्यादि का, रडार द्वारा बड़ी अच्छी तरह से पता लगाया जा सकता है।
सन् १८८६ में रेडियो तरंगों के आविष्कर्ता, हाइनरिख हेर्ट्स ने ठोस वस्तुओं से इन तरंगों का परावर्तन होना सिद्ध किया था। रेडियो स्पंद (pulse) के परावर्तन द्वारा परासन, अर्थात् दूरी का पता लगाने, का कार्य सन् १९२५ में किया जा चुका था और सन् १९३० तक रडार के सिद्धांत का प्रयोग करनेवाले कई सफल उपकरणों का निर्माण हो चुका था, किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध में ही रडार का प्रमुख रूप से उपयोग आरंभ हुआ।
स्थितिनिर्धारण की पद्धति
रडार से रेडियो तरंगें भेजी जाती हैं और दूर की वस्तु से परावर्तित होकर उनके वापस आने में लगनेवाले समय को नापा जाता है। रेडियो तरंगों की गति १,८६,००० मील प्रति सेकंड है, इसलिए समय ज्ञात होने पर परावर्तक वस्तु की दूरी सरलता से ज्ञात हो जाती है। रडार में लगे उच्च दिशापरक ऐंटेना (antenna) से परावर्तक, अर्थात् लक्ष्य वस्तु, की दिशा का ठीक ठीक पता चल जाता है। दूरी और दिशा मालूम हो जाने से वस्तु की यथार्थ स्थिति ज्ञात हो जाती है।
राडार का प्रेषित्र (transmitter) नियमित अंतराल पर रेडियो ऊर्जा के क्षणिक, किंतु तीव्र, स्पंद भेजता रहता है। प्रेषित स्पंदों के अंतरालों के बीच के समय में रडार का ग्राही (receiver), यदि बाहरी किसी वस्तु से परावर्तित होकर तरंगें आवें तो उनकी ग्रहण करता है। परावर्तन होकर वापस आने का समय विद्युत् परिपथों द्वारा सही सही मालूम हो जाता है और समय के अनुपात में अंकित सूचक से दूरी तुरंत मालूम हो जाती है। एक माइक्रोसेकंड (सेकंड का दसलाखवाँ भाग) के समय से १६४ गज और १०.७५ माइक्रोसेकंड से १ मील की दूरी समझी जाती है। कुछ रडार १०० मील दूर तक की वस्तुओं का पता लगा लेते हैं। अच्छे यंत्रों से दूरी नापने में १५ गज से अधिक की भूल नहीं होती और दूरी के कम या अधिक होने पर इस नाप की यथार्थता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। लक्ष्य वस्तु की दिशा अथवा उसकी ऊँचाई का कोण एक अंश के ०.०६ भाग तक परिशुद्ध नापा जा सकता है। रडार के ग्राही यंत्र की ऋणाय-किरण-नली (cathod ray tube) में वस्तु की स्थिति स्पष्ट दिखाई पड़ती है।
दिशा का ज्ञान
लक्ष्य का पता लगाने के लिए ऐंटेना को घुमाते, या आगे पीछे करते हैं। जब ऐंटेना लक्ष्य की दिशा में होता हैं, तब लक्ष्य का प्रतिरूप त्रृणाग्र-किरण-नली के फलक पर प्रकट होता है। इस प्रतिरूप को पिप (Pip) कहते हैं। पिप सबसे अधिक स्पष्ट तभी होता है, जब ऐंटेना सीधे लक्ष्य की दिशा में होता है। रडार के ऐंटेना अत्युच्च दिशापरक होते हैं। ये रेडियोतरंगों को सकरी किरणपुंजों में एकाग्र करते हैं तथा यंत्र में लगे विशेष प्रकार के परावर्तक इन किरणपुंजों को सघन बनाते हैं। रडार के कार्य के लिए अति लघु तरंगदैर्ध्य वाली, अर्थात् अत्युच्च आवृत्तियों की, तरंगों का उपयोग होता है। इन सूक्ष्म तरंगों के उत्पादन के लिए भल्टिकैविटी मैग्नेट्रॉन (Multicavity Magnetron) नामक उपकरण आवश्यक है, जिसके बिना आधुनिक रडार का कार्य संभव नहीं है।
राडार के अवयव
प्रत्येक राडार हैं : (१) मॉडुलेटर (modulator) से रेडियो-आवृत्ति दोलित्र (radio frequency oscillator) को दिए जानेवाली विद्युत् शक्ति के आवश्यक विस्फोट प्राप्त होते हैं; (२) रेडियो-आवृत्ति दोलित्र उच्च आवृत्तिवाली शक्ति के उन स्पंदों को उत्पन्न करता है जिनसे रडार के संकेत बनते हैं, (३) ऐंटेना द्वारा ये स्पंद आकाश में भेजे जाते हैं और ऐंटेना ही उन्हें वापसी में ग्रहण करता है, (४) ग्राही वापस आनेवाली रेडियोतरंगों का पता पाता है तथा (५) सूचक (indicator) रडार परिचालक को रेडियोतरंगों द्वारा एकत्रित की गई सूचनाएँ देता है। तुल्यकालन (synchronisation) तथा परास की माप के अनिवर्य कृत्य मॉडुलेटर तथा सूचक द्वारा संपन्न होते हैं। यों तो जिस विशेष कार्य के लिए रडार यंत्र का उपयोग किया जानेवाला है, उसके अनुरूप इसके प्रमुख अवयवों को भी बदलना आवश्यक होता है।
रडार के उपयोग
रडार के कारण युद्ध में सहसा आक्रमण प्राय: असंभव हो गया है। इसके द्वारा जहाजों वायुयानों और रॉकेटों के आने की पूर्वसूचना मिल जाती है। धुंध, अँधेरा आदि इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकते और अदृश्य वस्तुओं की दूरी, दिशा आदि ज्ञात हो जाती हैं। वायुयानों पर भी रडार यंत्रों से आगंतुक वायुयानों का पता चलता रहता है तथा इन यंत्रों की सहायता से आक्रमणकारी विमान लक्ष्य तक जाने और अपने स्थान तक वापस आने में सफल होते हैं। केंद्रीय नियंत्रक स्थान से रडार के द्वारा २०० मील के व्यास में चतुर्दिक्, ऊपर और नीचे, आकाश में क्या हो रहा है, इसका पता लगाया जा सकता है। रात्रि या दिन में समुद्र के ऊपर निकली पनडुब्बी नौकाओं का, या आते जाते जहाजों का, पता चल जाता है तथा दुश्मन के जहाजों पर तोपों का सही निशाना लगाने में भी इससे सहायता मिलती है।
शांति के समय में भी रडार के अनेक उपयोग हैं। इसने नौका, जहाज, या वायुयानचालन को अधिक सुरक्षित बना दिया है, क्योंकि इसके द्वारा चालकों को दूर स्थित पहाड़ों, हिमशैलों अथवा अन्य रुकावटों का पता चल जाता है। रडार से वायुयानों को पृथ्वी तल से अपनी सही ऊँचाई ज्ञात होती रहती है तथा रात्रि में हवाई अड्डों पर उतरने में बड़ी सहूलियत होती है। १० जनवरी, १९४६ ई. को संयुक्त राज्य, अमरीका, के सैनिक संकेत दल (Army Signal Corps) ने रडार द्वारा सर्वप्रथम चंद्रमा से संपर्क स्थापित किया। रेडियो संकेत को चंद्रमा तक आने जाने में ४,५०,००० मील की यात्रा करनी पड़ी और २.४ सेकंड समय लगा। यह प्रयोग महत्व का था और आशा की जाती है कि इससे ज्योतिष विज्ञान के क्षेत्र में नए तकनीकों का प्रादुर्भाव होगा।
टीका टिप्पणी और संदर्भ