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{{लेख सूचना | |||
|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 | |||
|पृष्ठ संख्या=65 | |||
|भाषा= हिन्दी देवनागरी | |||
|लेखक =मजूमदार और अ. स. अल्तेकर, रा. कु. मुकर्जी, आर एन दांडेकर, वि. प्र. सिनहा, वासुदेव उपाध्याय, परमेश्वरी लाल गुप्त | |||
|संपादक=सुधाकर पांडेय | |||
|आलोचक= | |||
|अनुवादक= | |||
|प्रकाशक=नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी | |||
|मुद्रक=नागरी मुद्रण वाराणसी | |||
|संस्करण=सन् 1976 ईसवी | |||
|स्रोत=मजूमदार और अ. स. अल्तेकर : द वाकाटक गुप्ता एज; रा. कु. मुकर्जी : दि गुप्ता एंपायर; आर एन दांडेकर : ए हिस्ट्री ऑव दि गुप्ताज; वि. प्र. सिनहा: दि डिक्लाइन ऑव दी किंगडम ऑव मगध; वासुदेव उपाध्याय : गुप्त साम्राज्य का इतिहास; परमेश्वरी लाल गुप्त: गुप्त साम्राज्य। | |||
|उपलब्ध=भारतडिस्कवरी पुस्तकालय | |||
|कॉपीराइट सूचना=नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी | |||
|टिप्पणी= | |||
|शीर्षक 1=लेख सम्पादक | |||
|पाठ 1=वाशुद्धानंद पाठक.; परमेश्वरीलाल गुप्त | |||
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कुमारगुप्त (प्रथम) (४१४-४५६ ई.) गुप्तवंशीय सम्राट। | कुमारगुप्त (प्रथम) (४१४-४५६ ई.) गुप्तवंशीय सम्राट। | ||
चंद्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य की मृत्यु के बाद महादेवी ध्रुवदेवी से उत्पन्न उसका पुत्र कुमारगुप्त (प्रथम) ४१४-१५ ई. में गुप्त साम्राज्य का सम्राट बना और लगभग ४० वर्षों तक अपने सुशासन द्वारा वंश और सम्राज्य की प्रतिष्ठा को अक्षुण्ण बनाए रखा। उसके समय के लगभग १६ अधिलेख और बड़ी मात्रा में सोने के सिक्के प्राप्त हुए हैं, उनसे उसके अनेक विरुदों यथा परमदैवत, परमभट्टारक, महाराजाधिराज, अश्वमेघमहेंद्र, महेंद्रादित्य, श्रीमहेंद्र, महेंद्रसिंह आदि की जानकारी मिलती है। इसमें से कुछ तो वंश के परंपरागत विरुद्ध हैं जो उनके सम्राट पद के बोधक हैं; कुछ उसकी नई विजयों के द्योतक जान पड़ते हैं। सिक्को से ज्ञात होता है कि उन्होंने दो अश्वमेघ यज्ञ किए थे। उसके अभिलेखों और सिक्कों के प्राप्तिस्थानों से उसके विस्तृत साम्राज्य का ज्ञान होता है। वे पूर्व में उत्तरपश्चिम बंगाल से लेकर पश्चिम में भावनगर, अहमदाबाद, उत्तरप्रदेश और बिहार में उनकी संख्या अधिक है। उसके अभिलेखों से साम्राज्य के प्रशासन और प्रांतीय उपरिकों (गवर्नरों) का भी ज्ञान होता है। | चंद्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य की मृत्यु के बाद महादेवी ध्रुवदेवी से उत्पन्न उसका पुत्र कुमारगुप्त (प्रथम) ४१४-१५ ई. में गुप्त साम्राज्य का सम्राट बना और लगभग ४० वर्षों तक अपने सुशासन द्वारा वंश और सम्राज्य की प्रतिष्ठा को अक्षुण्ण बनाए रखा। उसके समय के लगभग १६ अधिलेख और बड़ी मात्रा में सोने के सिक्के प्राप्त हुए हैं, उनसे उसके अनेक विरुदों यथा परमदैवत, परमभट्टारक, महाराजाधिराज, अश्वमेघमहेंद्र, महेंद्रादित्य, श्रीमहेंद्र, महेंद्रसिंह आदि की जानकारी मिलती है। इसमें से कुछ तो वंश के परंपरागत विरुद्ध हैं जो उनके सम्राट पद के बोधक हैं; कुछ उसकी नई विजयों के द्योतक जान पड़ते हैं। सिक्को से ज्ञात होता है कि उन्होंने दो अश्वमेघ यज्ञ किए थे। उसके अभिलेखों और सिक्कों के प्राप्तिस्थानों से उसके विस्तृत साम्राज्य का ज्ञान होता है। वे पूर्व में उत्तरपश्चिम बंगाल से लेकर पश्चिम में भावनगर, अहमदाबाद, उत्तरप्रदेश और बिहार में उनकी संख्या अधिक है। उसके अभिलेखों से साम्राज्य के प्रशासन और प्रांतीय उपरिकों (गवर्नरों) का भी ज्ञान होता है। | ||
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कुमारगुप्त प्रथम
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 65 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | मजूमदार और अ. स. अल्तेकर, रा. कु. मुकर्जी, आर एन दांडेकर, वि. प्र. सिनहा, वासुदेव उपाध्याय, परमेश्वरी लाल गुप्त |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
स्रोत | मजूमदार और अ. स. अल्तेकर : द वाकाटक गुप्ता एज; रा. कु. मुकर्जी : दि गुप्ता एंपायर; आर एन दांडेकर : ए हिस्ट्री ऑव दि गुप्ताज; वि. प्र. सिनहा: दि डिक्लाइन ऑव दी किंगडम ऑव मगध; वासुदेव उपाध्याय : गुप्त साम्राज्य का इतिहास; परमेश्वरी लाल गुप्त: गुप्त साम्राज्य। |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | वाशुद्धानंद पाठक.; परमेश्वरीलाल गुप्त |
कुमारगुप्त (प्रथम) (४१४-४५६ ई.) गुप्तवंशीय सम्राट। चंद्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य की मृत्यु के बाद महादेवी ध्रुवदेवी से उत्पन्न उसका पुत्र कुमारगुप्त (प्रथम) ४१४-१५ ई. में गुप्त साम्राज्य का सम्राट बना और लगभग ४० वर्षों तक अपने सुशासन द्वारा वंश और सम्राज्य की प्रतिष्ठा को अक्षुण्ण बनाए रखा। उसके समय के लगभग १६ अधिलेख और बड़ी मात्रा में सोने के सिक्के प्राप्त हुए हैं, उनसे उसके अनेक विरुदों यथा परमदैवत, परमभट्टारक, महाराजाधिराज, अश्वमेघमहेंद्र, महेंद्रादित्य, श्रीमहेंद्र, महेंद्रसिंह आदि की जानकारी मिलती है। इसमें से कुछ तो वंश के परंपरागत विरुद्ध हैं जो उनके सम्राट पद के बोधक हैं; कुछ उसकी नई विजयों के द्योतक जान पड़ते हैं। सिक्को से ज्ञात होता है कि उन्होंने दो अश्वमेघ यज्ञ किए थे। उसके अभिलेखों और सिक्कों के प्राप्तिस्थानों से उसके विस्तृत साम्राज्य का ज्ञान होता है। वे पूर्व में उत्तरपश्चिम बंगाल से लेकर पश्चिम में भावनगर, अहमदाबाद, उत्तरप्रदेश और बिहार में उनकी संख्या अधिक है। उसके अभिलेखों से साम्राज्य के प्रशासन और प्रांतीय उपरिकों (गवर्नरों) का भी ज्ञान होता है।
कुमारगुप्त के अंतिम दिनों में साम्राज्य को हिला देने वाले दो आक्रमण हुए। पहला आक्रमण कदाचित् नर्मदा नदी और विध्यांचल पर्वतवर्ती आधुनिक मध्यप्रदेशीय क्षेत्रों में बसने वाली पुष्यमित्र नाम की किसी जाति का था। उनके आक्रमण ने गुप्तवंश की लक्ष्मी को विचलित कर दिया था; किंतु राजकुमार स्कंदगुप्त आक्रमणकारियों को मार गिराने में सफल हुआ। दूसरा आक्रमण हूणों का था जो संभवत उसके जीवन के अंतिम वर्ष (४५५-६ ई.) में हुआ था। हूणों ने गंधार देश पर कब्जा कर गंगा की ओर बढ़ना प्रारंभ कर दिया था। स्कंदगुप्त ने उन्हें (म्लेच्छों को) पीछे ढकेल दिया।
कुमारगुप्त का शासनकाल भारतवर्ष में सुख और समृद्धि का युग था। वह स्वयं धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु और उदार शासक था। उसके अभिलेखों में पौराणिक हिन्दू धर्म के अनेक संप्रदायों के देवी-देवताओं के नामोल्लेख और स्मरण तो हैं ही, बुद्ध की भी स्मृतिचर्चा है। उसके उदयगिरि के अभिलेख में पार्श्वनाथ के मूर्तिनिर्मांण का भी वर्णन है। यदि ह्वेनत्सांग का शक्रादित्य कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य ही हो, तो हम उसे नालन्दा विश्वविद्यालय भी कह सकते हैं। ४५५-५६ ई. में उसकी मृत्यु हुई।
टीका टिप्पणी और संदर्भ