"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-13" के अवतरणों में अंतर
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षष्ठ अध्याय: शान्तिपर्व (राजधर्मानुशासनपर्व)
वैशम्पायन जी कहते हैं-- राजन्! इतना कहकर देवर्षि नारद तो चुप हो गये, किंतु राजर्षि युधिष्ठिर शोकाक्रमग्न हो चिन्ता करने लगे।
उनका मन बहुत दुखी हो गया। वे शोक के मारे व्याकुल हो सर्पकी भांति लंबी सांस खींचने लगे। उनकी आखों से आंसू बहने लगा। वीर युधिष्ठिरकी ऐसी अवस्था देख कुन्ती के सारे अंगों में शोक व्याप्त हो गया। वे दुःखसे अचेत सी हो गयीं और मधुर वाणी में समय के अनुसार अर्थ-भरी बात कहने लगीं--। ’महाबाहु युधिष्ठिर! तुम्हें कर्ण के लिये शोक नहीं करना चाहिये। महामते। शोक छोड़ो और मेरी यह बात सुनो। ’वर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठर! मैंने पहले कर्ण को यह बताने का प्रयत्न किया था कि पाण्डव तुम्हारे भाई हैं। उसके पिता भगवान् भास्कर ने भी ऐसी ही चेष्ठा की। ’हितकी इच्छा रखने वाले एक हितैषी सुहृद्कों जो कुछ कहना चाहिय, वही भगवान् सूर्य ने उससे स्वप्न में और मेरे सामने भी कहा। ’परन्तु भगवान् सूर्य एवं मैं दोनों ही स्नेह के कारण दिखाकर अपने पक्ष में करने या तुम लोगों से एकता (मेल) कराने में सफल न हो सके। ’तदनन्तर वह काल के वशीभूत हो वैर का बदला लेने में लग गया और तुम लोगों के बिपरीत ही सारे कार्य करने लगा; यह देखकर मैंने उसकी उपेक्षा कर दी’। माता के ऐसा कहने पर धर्मराज युधिष्ठिरके नेत्रों में आंसू भर आया, शोक से उनकी इन्द्रियां व्याकुल हो गयीं और वे धर्मत्मा नरेश उनसे इस प्रकार बोले- ’मा! आने इस गोपनीय बात को गुप्त रखकर मुझे बड़ा कष्ट दिया,। फिर महातेजस्वी युधिष्ठिरने अत्यन्त दुखी होकर सारे संसार की स्त्रिय को यह शाप दे दिया कि ’आज से स्त्रियां अपने मन में कोई गोपनीय बात नहीं छिपा सकेंगी’। राजा युधिष्ठिरका हृदय अपने पुत्रों, पौत्रों, सम्बन्धियों तथा सुहृदों को याद करके उद्विग्न हो उठा। उनके मन में व्याकुलता छा गयी। तत्पश्चात् शोक से व्याकुल चित्त हुए बुद्धिमान् राजा युधिष्ठिरसंताप से पीड़ित हो धूमयुक्त अग्नि के समान धीरे-धीरे जलने लगे तथा राज्य और जीवन से विरक्त हो उठे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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