"महाभारत आदि पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-19" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व:षोडशो अध्‍याय: श्लोक 1- 25 का हिन्दी अनुवाद</div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व:षोडशो अध्‍याय: श्लोक 1- 25 का हिन्दी अनुवाद</div>
  
शौनकजी बोले—सूतनन्दन ! आप ज्ञानी महात्मा आस्तीक की इस कथा को पुनः विस्तार के साथ कहिये। हमें उसे सुनने के लिये बड़ी उत्कण्ठा है। सौम्य ! आप बड़ी मधुर कथा कहते हैं। उसका एक एक अक्षर और एक-एक पद कोमल हैं। तात ! इसे सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। आप अपने पिता लोमहर्षण की भाँति ही प्रवचन कर रहे हैं। आपके पिता सदा हम लोगों की सेवा में लगे रहते थे। उन्होंने इस उपाख्यान को जिस प्रकार कहा है, उसी रूप में आप भी कहिये। उग्रश्रवाजी ने कहा—आयुष्मन् ! मैंने अपने कथा वाचक पिता जी के मुख से यह आस्तीक की कथा, जिस रूप में सुनी है, उसी प्रकार आपसे कहता हूँ। ब्रह्मन् ! पहले सत्य युग में दक्ष प्रजापति की दो शुभलक्षणा कन्याएँ थीं--कद्रू और विनता। वे दोनों बहिनें रूप सौन्दर्य से सम्पन्न तथा अद्भूत थी।। अनघ ! उन दोनों का विवाह महर्षि कश्यप जी के साथ हुआ था। एक दिन प्रजापति ब्रह्माजी के समान शक्तिशाली पति महर्षि कश्यप ने अत्यन्त हर्ष में भरकर अपनी उन दोनों धर्म पत्नियों को प्रसन्नता पूर्वक वर देते हुए कहा--‘तुम में से जिसकी जो इच्छा हो वर माँग लो।’ इस प्रकार कश्यप जी से उत्तम वरदान मिलने की बात सुनकर प्रसन्नता के कारण उन दोनों सुन्दरी स्त्रियों को अनुपम आनन्द प्राप्त हुआ। कद्रूने समान तेजस्वी एक हजार नागों को पुत्र रूप में पाने का वर माँगा। विनता ने बल, तेज, शरीर तथा पराक्रम में कद्रू के पुत्रों से श्रेष्ठ केवलदो ही पुत्र माँगे। विनता को पति देव ने, अत्यन्त अभीष्ट दो पुत्रों के होने का वरदान दे दिया। उस समय निता ने कश्यप जी के ‘एवमस्तु’ कहकर उनके दिये हुए वर को शिरोधार्य किया। अपनी प्रार्थना के अनुसार ठीक वर पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई। कद्रू के पुत्रों से अधिक बलवान और पराक्रमी दो पुत्रों के होने का वर प्राप्त करके विनता अपने को कृतकृत्य मानने लगी। समाज तेजस्वी एक हजार पुत्र होने का वर पाकर कद्रू भी अपना मनोरथ सिद्ध हुआ समझने लगी। वरदान पाकर सन्तुष्ट हुई अपनी उन धर्मपत्नियों से यह कहकर कि ‘तुम दोनों यत्नपूर्वक अपने अपने गर्भ की रक्षा करना’ महातपस्वी कश्यपजी वन में चले गये। ब्रह्मन् ! तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् कद्रू ने एक हजार और विनता ने दो अण्डे दिेये। दसियों ने अत्यन्त प्रसन्न होकर दोनों के अण्डों को गरम वर्तनों में रख दिया। वे अण्डे पाँच सौ वर्षो तक उन्हीं वर्तनों में पडे़ रहे। तत्पश्चात् पाँच सौ वर्ष पूरे होने पर कद्रू के एक हजार पुत्र अण्डों को फोड़कर बाहर निकल आये परन्तु विनता के अण्डों से उसके दो बच्चे निकलते नहीं दिखायी दिये। इससे पुत्रार्थिनी और तपस्विनी देवी विनता सौत के सामने लज्जित हो गयी। फिर उसने अपने हाथों से एक अण्डा फोड़ डाला। फूटने पर उस अण्डे में विनता ने अपने पुत्र को देखा, उसके शरीर का ऊपरी भाग पूर्ण रूप से विकसित एवं पुष्ट था, किन्तु नीचे का आधा अंग अभी अधूरा रह गया था। सुना जाता है, उस पुत्र ने क्रोध के आवेश में आकर विनता को शाप दे दिया-‘मा ! तूने लोभ के वशीभूत होकर मुझे इस प्रकार अधूरे शरीर का बना दिया— मेरे समस्त अंगो को पूर्णतः विकसित एवं पुष्ट नहीं होने दिया; इसलिये जिस सौत के साथ तू लाग-डाँट रखती है, उसी की पाँच सौ वर्षो तक दासी बनी रहेगी। ‘और मा ! यह जो दूसरे अण्डे में तेरा पुत्र है, यही तुझे दासी-भाव से छुटकारा दिलायेगा; किन्तु माता ! ऐसा तभी हो सकता है जब तू इस तपस्वी पुत्र को मेरी ही तरफ अण्डा फोड़कर अंगहीन या अधूरे अंगो से युक्त न बना देगी। ‘इसलिये यदि तू इस बालक को विशेष बलवान् बनाना चाहती है तो पाँच सौ वर्ष के बाद तक तुझे धैर्य धारण करके इसके जन्म की प्रतीक्षा करनी चाहिये’। इस प्रकार विनता को शाप देकर यह बालक अरूण अन्तरिक्ष में उड़ गया। ब्रह्मन्! तभी से प्रातःकाल (प्राची दिशा में) सदा जो लाली दिखायी देती है, उसके रूप में विनता के पुत्र अरूण का ही दर्शन होता है। वह सूर्यदेव के रथ पर जा बैठा और उनके सारथि का काम सँभालने लगा। तदनन्तर समय पूरा होने पर सर्प संहारक गरूड़ का जन्म हुआ। भृगु श्रेष्ठ ! पक्षी राज गरूड़ जन्म लेते ही क्षुधा से व्याकुल हो गये और विश्वता ने उनके लिये जो आहार नियत किया था, अपने उस भोज्य पदार्थ को प्राप्त करने के लिये माता विनता को छोडकर आकाश में उड़ गये।
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शौनकजी बोले—सूतनन्दन ! आप ज्ञानी महात्मा आस्तीक की इस कथा को पुनः विस्तार के साथ कहिये। हमें उसे सुनने के लिये बड़ी उत्कण्ठा है। सौम्य ! आप बड़ी मधुर कथा कहते हैं। उसका एक - एक अक्षर और एक-एक पद कोमल हैं। तात ! इसे सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। आप अपने पिता लोमहर्षण की भाँति ही प्रवचन कर रहे हैं। आपके पिता सदा हम लोगों की सेवा में लगे रहते थे। उन्होंने इस उपाख्यान को जिस प्रकार कहा है, उसी रूप में आप भी कहिये। उग्रश्रवाजी ने कहा—आयुष्मन ! मैंने अपने कथावाचक पिता जी के मुख से यह आस्तीक की कथा, जिस रूप में सुनी है, उसी प्रकार आपसे कहता हूँ। ब्रह्मन ! पहले सत्ययुग में दक्ष प्रजापति की दो शुभलक्षणा कन्याएँ थीं--कद्रू और विनता। वे दोनों बहिनें रूप- सौन्दर्य से सम्पन्न तथा अद्भुत थी।। अनघ ! उन दोनों का विवाह महर्षि कश्यप जी के साथ हुआ था। एक दिन प्रजापति ब्रह्माजी के समान शक्तिशाली पति महर्षि कश्यप ने अत्यन्त हर्ष में भरकर अपनी उन दोनों धर्मपत्नियों को प्रसन्नतापूर्वक वर देते हुए कहा--‘तुम में से जिसकी जो इच्छा हो वर माँग लो।’ इस प्रकार कश्यप जी से उत्तम वरदान मिलने की बात सुनकर प्रसन्नता के कारण उन दोनों सुन्दरी स्त्रियों को अनुपम आनन्द प्राप्त हुआ। कद्रू ने समान तेजस्वी एक हजार नागों को पुत्र रूप में पाने का वर माँगा। विनता ने बल, तेज, शरीर तथा पराक्रम में कद्रू के पुत्रों से श्रेष्ठ केवल दो ही पुत्र माँगे। विनता को पति देव ने, अत्यन्त अभीष्ट दो पुत्रों के होने का वरदान दे दिया। उस समय विनिता ने कश्यप जी के ‘एवमस्तु’ कहकर उनके दिये हुए वर को शिरोधार्य किया। अपनी प्रार्थना के अनुसार ठीक वर पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई। कद्रू के पुत्रों से अधिक बलवान और पराक्रमी दो पुत्रों के होने का वर प्राप्त करके विनता अपने को कृतकृत्य मानने लगी। समाज तेजस्वी एक हजार पुत्र होने का वर पाकर कद्रू भी अपना मनोरथ सिद्ध हुआ समझने लगी। वरदान पाकर सन्तुष्ट हुई। अपनी उन धर्मपत्नियों से यह कहकर कि ‘तुम दोनों यत्नपूर्वक अपने अपने गर्भ की रक्षा करना’ महातपस्वी कश्यपजी वन में चले गये। ब्रह्मन ! तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात कद्रू ने एक हजार और विनता ने दो अण्डे दिेये। दसियों ने अत्यन्त प्रसन्न होकर दोनों के अण्डों को गरम वर्तनों में रख दिया। वे अण्डे पाँच सौ वर्षो तक उन्हीं वर्तनों में पडे़ रहे। तत्पश्चात पाँच सौ वर्ष पूरे होने पर कद्रू के एक हजार पुत्र अण्डों को फोड़कर बाहर निकल आये, परन्तु विनता के अण्डों से उसके दो बच्चे निकलते नहीं दिखायी दिये। इससे पुत्रार्थिनी और तपस्विनी देवी विनता सौत के सामने लज्जित हो गयी। फिर उसने अपने हाथों से एक अण्डा फोड़ डाला। फूटने पर उस अण्डे में विनता ने अपने पुत्र को देखा, उसके शरीर का ऊपरी भाग पूर्ण रूप से विकसित एवं पुष्ट था, किन्तु नीचे का आधा अंग अभी अधूरा रह गया था। सुना जाता है, उस पुत्र ने क्रोध के आवेश में आकर विनता को शाप दे दिया-‘मा ! तूने लोभ के वशीभूत होकर मुझे इस प्रकार अधूरे शरीर का बना दिया— मेरे समस्त अंगो को पूर्णतः विकसित एवं पुष्ट नहीं होने दिया; इसलिये जिस सौत के साथ तू लाग-डाँट रखती है, उसी की पाँच सौ वर्षो तक दासी बनी रहेगी। ‘और मा ! यह जो दूसरे अण्डे में तेरा पुत्र है, यही तुझे दासी-भाव से छुटकारा दिलायेगा; किन्तु माता ! ऐसा तभी हो सकता है जब तू इस तपस्वी पुत्र को मेरी ही तरह अण्डा फोड़कर अंगहीन या अधूरे अंगो से युक्त न बना देगी। ‘इसलिये यदि तू इस बालक को विशेष बलवान बनाना चाहती है तो पाँच सौ वर्ष के बाद तक तुझे धैर्य धारण करके इसके जन्म की प्रतीक्षा करनी चाहिये।' इस प्रकार विनता को शाप देकर यह बालक अरूण अन्तरिक्ष में उड़ गया। ब्रह्मन! तभी से प्रातःकाल (प्राची दिशा में) सदा जो लाली दिखायी देती है, उसके रूप में विनता के पुत्र अरुण का ही दर्शन होता है। वह सूर्यदेव के रथ पर जा बैठा और उनके सारथि का काम सँभालने लगा। तदनन्तर समय पूरा होने पर सर्प संहारक गरूड़ का जन्म हुआ। भृगु श्रेष्ठ ! पक्षी राज गरूड़ जन्म लेते ही क्षुधा से व्याकुल हो गये और विश्वता ने उनके लिये जो आहार नियत किया था, अपने उस भोज्य पदार्थ को प्राप्त करने के लिये माता विनता को छोडकर आकाश में उड़ गये।
  
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आदिपर्व अध्याय 15 श्लोक 1- 11|अगला=महाभारत आदिपर्व अध्याय 17 श्लोक 1- 13}}
 
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०९:२६, २ जुलाई २०१५ का अवतरण

षोडशो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)

महाभारत: आदिपर्व:षोडशो अध्‍याय: श्लोक 1- 25 का हिन्दी अनुवाद

शौनकजी बोले—सूतनन्दन ! आप ज्ञानी महात्मा आस्तीक की इस कथा को पुनः विस्तार के साथ कहिये। हमें उसे सुनने के लिये बड़ी उत्कण्ठा है। सौम्य ! आप बड़ी मधुर कथा कहते हैं। उसका एक - एक अक्षर और एक-एक पद कोमल हैं। तात ! इसे सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। आप अपने पिता लोमहर्षण की भाँति ही प्रवचन कर रहे हैं। आपके पिता सदा हम लोगों की सेवा में लगे रहते थे। उन्होंने इस उपाख्यान को जिस प्रकार कहा है, उसी रूप में आप भी कहिये। उग्रश्रवाजी ने कहा—आयुष्मन ! मैंने अपने कथावाचक पिता जी के मुख से यह आस्तीक की कथा, जिस रूप में सुनी है, उसी प्रकार आपसे कहता हूँ। ब्रह्मन ! पहले सत्ययुग में दक्ष प्रजापति की दो शुभलक्षणा कन्याएँ थीं--कद्रू और विनता। वे दोनों बहिनें रूप- सौन्दर्य से सम्पन्न तथा अद्भुत थी।। अनघ ! उन दोनों का विवाह महर्षि कश्यप जी के साथ हुआ था। एक दिन प्रजापति ब्रह्माजी के समान शक्तिशाली पति महर्षि कश्यप ने अत्यन्त हर्ष में भरकर अपनी उन दोनों धर्मपत्नियों को प्रसन्नतापूर्वक वर देते हुए कहा--‘तुम में से जिसकी जो इच्छा हो वर माँग लो।’ इस प्रकार कश्यप जी से उत्तम वरदान मिलने की बात सुनकर प्रसन्नता के कारण उन दोनों सुन्दरी स्त्रियों को अनुपम आनन्द प्राप्त हुआ। कद्रू ने समान तेजस्वी एक हजार नागों को पुत्र रूप में पाने का वर माँगा। विनता ने बल, तेज, शरीर तथा पराक्रम में कद्रू के पुत्रों से श्रेष्ठ केवल दो ही पुत्र माँगे। विनता को पति देव ने, अत्यन्त अभीष्ट दो पुत्रों के होने का वरदान दे दिया। उस समय विनिता ने कश्यप जी के ‘एवमस्तु’ कहकर उनके दिये हुए वर को शिरोधार्य किया। अपनी प्रार्थना के अनुसार ठीक वर पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई। कद्रू के पुत्रों से अधिक बलवान और पराक्रमी दो पुत्रों के होने का वर प्राप्त करके विनता अपने को कृतकृत्य मानने लगी। समाज तेजस्वी एक हजार पुत्र होने का वर पाकर कद्रू भी अपना मनोरथ सिद्ध हुआ समझने लगी। वरदान पाकर सन्तुष्ट हुई। अपनी उन धर्मपत्नियों से यह कहकर कि ‘तुम दोनों यत्नपूर्वक अपने अपने गर्भ की रक्षा करना’ महातपस्वी कश्यपजी वन में चले गये। ब्रह्मन ! तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात कद्रू ने एक हजार और विनता ने दो अण्डे दिेये। दसियों ने अत्यन्त प्रसन्न होकर दोनों के अण्डों को गरम वर्तनों में रख दिया। वे अण्डे पाँच सौ वर्षो तक उन्हीं वर्तनों में पडे़ रहे। तत्पश्चात पाँच सौ वर्ष पूरे होने पर कद्रू के एक हजार पुत्र अण्डों को फोड़कर बाहर निकल आये, परन्तु विनता के अण्डों से उसके दो बच्चे निकलते नहीं दिखायी दिये। इससे पुत्रार्थिनी और तपस्विनी देवी विनता सौत के सामने लज्जित हो गयी। फिर उसने अपने हाथों से एक अण्डा फोड़ डाला। फूटने पर उस अण्डे में विनता ने अपने पुत्र को देखा, उसके शरीर का ऊपरी भाग पूर्ण रूप से विकसित एवं पुष्ट था, किन्तु नीचे का आधा अंग अभी अधूरा रह गया था। सुना जाता है, उस पुत्र ने क्रोध के आवेश में आकर विनता को शाप दे दिया-‘मा ! तूने लोभ के वशीभूत होकर मुझे इस प्रकार अधूरे शरीर का बना दिया— मेरे समस्त अंगो को पूर्णतः विकसित एवं पुष्ट नहीं होने दिया; इसलिये जिस सौत के साथ तू लाग-डाँट रखती है, उसी की पाँच सौ वर्षो तक दासी बनी रहेगी। ‘और मा ! यह जो दूसरे अण्डे में तेरा पुत्र है, यही तुझे दासी-भाव से छुटकारा दिलायेगा; किन्तु माता ! ऐसा तभी हो सकता है जब तू इस तपस्वी पुत्र को मेरी ही तरह अण्डा फोड़कर अंगहीन या अधूरे अंगो से युक्त न बना देगी। ‘इसलिये यदि तू इस बालक को विशेष बलवान बनाना चाहती है तो पाँच सौ वर्ष के बाद तक तुझे धैर्य धारण करके इसके जन्म की प्रतीक्षा करनी चाहिये।' इस प्रकार विनता को शाप देकर यह बालक अरूण अन्तरिक्ष में उड़ गया। ब्रह्मन! तभी से प्रातःकाल (प्राची दिशा में) सदा जो लाली दिखायी देती है, उसके रूप में विनता के पुत्र अरुण का ही दर्शन होता है। वह सूर्यदेव के रथ पर जा बैठा और उनके सारथि का काम सँभालने लगा। तदनन्तर समय पूरा होने पर सर्प संहारक गरूड़ का जन्म हुआ। भृगु श्रेष्ठ ! पक्षी राज गरूड़ जन्म लेते ही क्षुधा से व्याकुल हो गये और विश्वता ने उनके लिये जो आहार नियत किया था, अपने उस भोज्य पदार्थ को प्राप्त करने के लिये माता विनता को छोडकर आकाश में उड़ गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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