"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 63-78" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिनवतितमो अध्याय: श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
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०८:३५, ५ जुलाई २०१५ का अवतरण

त्रिनवतितमो (93) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिनवतितमो अध्याय: श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद

विश्वामित्र ने कहा-हम लोगों का भूख के मारे सनातन शास्त्र विस्मृत हो गया है और शात्रोक्त धर्म भी क्षीण हो चला है। ऐसी दशा इसकी नहीं है तथा यह आलसी, केवल पेट की भूख बुझाानें में ही लगा हुआ और मूर्ख है। इसलिये यह कुत्ते के साथ मोटा हो गया है। जमदग्नि बोले- हमारी तरह इसके मन में वर्ष भर के लिये भेजन और ईंधन जुटानें की चिंता नहीं है, इसलिये यह कुत्ते के साथ मोटा हो गया है। कश्‍यप नें कहा-हम लोगों के चार भाई हमसें प्रतिदिन ‘भोजन दो, भोजन दो’ कहकर अन्न मांगते है, अर्थात हम लोगों को एक भारी कुटुम्ब के भोजन-वस्त्र की चिन्ता करनी पड़ती है। इस सन्यासी को यह सब चिन्ता नहीं है। अतः यह कुत्ते के साथ मोटा है। भरद्धाज बोले- इस विवके शून्य ब्राह्माण बंधु को हम लोगों की तरह स्त्री के कलंकित होनें का शोक नहीं है। इसलिये यह कुत्ते के साथ मोटा हो गया है। गौतम बोले- हम लोगों की तरह इसे तीन-तीन वर्षो तक कुश की बनी हुइ तीन लर वाली मेंखला और मृग चर्म धारण करके नहीं रहना पड़ता है। इसलिये यह कुत्ते के साथ मोटा हो गया है। भीष्मजी कहते हैं-राजन। कुत्ते सहित आये हुये सन्यासी ने जब उन महर्षियों को देखा, तब उनके पास आकर संन्यासी की मर्यादा के अनुसार उनका हाथ से स्पर्श किया। तदनन्तर वे एक दूसरे को अपना कुशल-समाचार बताते हुए बोले- हम लोंग अपनी भूख मिटानें के लिये इस वन में भ्रमण कर रहे है। ऐसा कहकर वे साथ-ही साथ वहां सेचल पड़े। उन सबके निश्‍चय और कार्य एक से थे। वे फल-मूल का संग्रह करकें उन्हें साथ लिये उस वन में विचर रहे थे। एक दिन घूमतें-फिरते हुए उन महर्षियों को एक सुन्दर सरोवर दिखायी पड़ा, जिसका जल बड़ा ही स्वच्छ और पवित्र था। उसके चारो किनारों पर सघन वृक्षों की पंक्ति शोभा पा रही थी। प्रातःकालीन सूर्य के समान रंग के कमल पुष्प उस सरोवर की शोभा बढ़ा रहे थे तथा वैदूर्यमणि की सी कांति वाले कमलिनि के पत्ते उसमें चारों ओर छा रहे थें। नाना प्रकार के विहंगम कलरव करते हुए उसकी जलराशि का सेवन करते थे। उसमें प्रवेश करने के लिये एक ही द्वार था। उसकी कोई वस्तु ली नहीं जा सकती थी। उसमें उतरनें के लिये बहुत सुन्दर सीढ़ीयां बनी हुइ थी। वहां काई और कीचड़ का तो नाम भी नहीं था। राजा वृषादर्भि की भेजी हुई भयानक आकार वाली यातुधानी कृत्या उस तालाब की रक्षा कर रही थी। पशुसख के साथ वें सभी महर्षि मृणाल लेनें के लिये उस सुन्दर सरोवर के तट पर गये, जो उस कृत्या के द्धारा सुरक्षित था। सरोवर तट पर खड़ी हुयी उस यातुधानी कृत्या को जो बड़ी विकराल दिखायी देती थी, देखकर बोले- ‘अरी। तू कौन है और किसलिये यहां अकेली खड़ी है? यहां तेरे आनें का क्या प्रयोजन है? इस सरोवर के तट पर रहकर तू कौन-सा कार्य सिद्ध करना चाहती है? यातुधानी बोली- तपस्वियों। मैं जो कोई भी होऊं, तुम्हें मेरे विषय में पूछ-ताछ करनें का किसी प्रकार कोई अधिकार नहीं है। तुम इतना ही जान लो कि मै। इस सरोवर का संरक्षण करनें वाली हूं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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