"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 47-62" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिनवतितमो अध्याय: श्लोक 47-62 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिनवतितमो अध्याय: श्लोक 47-62 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
पशुसख ने कहा- धर्म का पालन करने पर जिन धन की प्राप्ति होती है, उससे बढ़कर कोई धन नहीं है। उस धन को ब्राह्माण ही जानते है; अतः मैं भी उसी धर्ममय धन की प्राप्ति का उपाय सीखने के लिये विद्वान ब्राह्माणों की सेवा में लगा हूं। ऋषियों ने कहा- जिसकी प्रजा ये कपटयुक्त फल देने के लिये ले आयी है तथा जो इस प्रकार फल के व्याज से हमैं सुवर्ण दान कर रहा है, वह राजा अपने दान के साथ ही कुशल से रहे। भीष्मजी कहते हैं-युधिष्ठिर। यह कहकर उन सुवर्ण युक्त फलों का परित्याग करके वे समस्त व्रतधारी महर्षि वहां से अन्यत्र चले गये। तब मंत्रियों ने शैब्य के पास जाकर कहा- महाराज। आपको विदित हो कि उन फलों को देखते ही ऋषियों को यह संदेह हुआ कि हमारे साथ छल किया जा रहा है। इसलिये वे फलों का परित्याग करके दूसरे मार्ग से चले गये हैं। सेवकों के ऐसा कहने पर राजा वृषादर्भि को बड़ा कोप हुआ और वे उन सप्तर्षियों से अपने अपमान का बदला लेने का विचार करके राजधानी को लौट गये। वहां जाकर अत्यन्त कठोर नियमों का पालन करते हुए वे आहवनीय अग्नि में आभिचारिक मन्त्र पढ़कर एक-एक आहुति डालने लगे। आहुति समाप्त होने पर उस अग्नि से एक लोक-भयंकर कृत्या प्रकट हुई- राजा वृषादर्भि ने उसका नाम यातुधानी रखा। कालरात्रि के समान विकराल रूप धारण करने वाली वह कृत्या हाथ जोड़कर राजा के पास उपस्थित हुई और बोली- ‘महाराज। मैं अपकी किस आज्ञा का पालन करूं?’ वृषादर्भि ने कहा- यातुधानी। तुम यहां से वन में जाओ और वहां अरून्धती सहित सातों ऋषियों का, उनकी दासी का और उस दासी के पति का भी नाम पूछकर उसका तात्पर्य अपने मन में धारण करो। इस प्रकार उन सब के नामों का अर्थ समझकर उन्हें मार डालो; उसके बाद जहां इच्छा हो चली जाना। राजा की आज्ञा पाकर यातुधानी नें ‘तथास्तु’ कहकर इसे स्वीकार किया और जहां वे महर्षि विचरा करते थे, उसी वन में चली गयी। भीष्मजी ने कहा-राजन। उन दिनो वे अत्रि आदि महर्षि उस वन में फल-मूल का आहार करते हुये घूमा करते थे। एक दिन उन महर्षियों नें देखा, एक सन्यासी कुत्ते के साथ वहां इधर-उधर विचर रहा है। उसका शरीर बहुत मोटा था। उसके मोटे कंधे, हाथ, पैर, मुख और सभी अंग सुन्दर और सुड़ौल थे। अरुन्धती सारे अंगो से हुष्ट-पुष्ट हुए उस सुन्दर संन्यासी को देखकर ऋषियों से बोली-‘क्या आप लोग कभी ऐसा नहीं हो सकेगें? वसिष्ठजी ने कहा-हम लोगों की तरह इसको इस बात की चिंता नहीं है कि आज हमारा अग्निहोत्र नहीं हुआ ओर सवेरे तथा शाम को अग्निहोत्र करना है; इसलिए यह कुत्ते के साथ खूब मोटा-ताजा हो गया है। अत्रि बाले- हम लोगों की तरह भूख के मारें उसकी सारी शक्ति नष्ट नहीं हो गयी है तथा बड़े कष्ट से जो वेदों का अध्ययन किया गया था, वह भी हमारी तरह इसका नष्ट नहीं हुआ है, इसलिये यह कुत्ते के साथ मोटा हो गया है।   
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पशुसख ने कहा- धर्म का पालन करने पर जिस धन की प्राप्ति होती है, उससे बढ़कर कोई धन नहीं है। उस धन को ब्राह्माण ही जानते हैं, अतः मैं भी उसी धर्ममय धन की प्राप्ति का उपाय सीखने के लिये विद्वान ब्राह्माणों की सेवा में लगा हूं। ऋषियों ने कहा- जिसकी प्रजा ये कपटयुक्त फल देने के लिये ले आयी है तथा जो इस प्रकार फल के ब्याज से हमैं सुवर्ण दान कर रहा है, वह राजा अपने दान के साथ ही कुशल से रहे। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! यह कहकर उन सुवर्णयुक्त फलों का परित्याग करके वे समस्त व्रतधारी महर्षि वहां से अन्यत्र चले गये। तब मंत्रियों ने शैव्य के पास जाकर कहा- महाराज ! आपको विदित हो कि उन फलों को देखते ही ऋषियों को यह संदेह हुआ कि हमारे साथ छल किया जा रहा है। इसलिये वे फलों का परित्याग करके दूसरे मार्ग से चले गये हैं। सेवकों के ऐसा कहने पर राजा वृषादर्भि को बड़ा कोप हुआ और वे उन सप्तऋषियों से अपने अपमान का बदला लेने का विचार करके राजधानी को लौट गये। वहां जाकर अत्यन्त कठोर नियमों का पालन करते हुए वे आहवनीय अग्नि में आभिचारिक मन्त्र पढ़कर एक-एक आहुति डालने लगे। आहुति समाप्त होने पर उस अग्नि से एक लोक-भयंकर कृत्या प्रकट हुई राजा वृषादर्भि ने उसका नाम यातुधानी रखा। कालरात्रि के समान विकराल रूप धारण करने वाली वह कृत्या हाथ जोड़कर राजा के पास उपस्थित हुई और बोली- ‘महाराज ! मैं अपकी किस आज्ञा का पालन करूं?’ वृषादर्भि ने कहा- यातुधानी ! तुम यहां से वन में जाओ और वहां अरुन्धती सहित सातों ऋषियों का, उनकी दासी का और उस दासी के पति का भी नाम पूछकर उसका तात्पर्य अपने मन में धारण करो। इस प्रकार उन सबके नामों का अर्थ समझकर उन्हें मार डालो; उसके बाद जहां इच्छा हो चली जाना। राजा की आज्ञा पाकर यातुधानी ने ‘तथास्तु’ कहकर इसे स्वीकार किया और जहां वे महर्षि विचरा करते थे, उसी वन में चली गयी। भीष्मजी ने कहा-राजन ! उन दिनों वे अत्रि आदि महर्षि उस वन में फल-मूल का आहार करते हुये घूमा करते थे। एक दिन उन महर्षियों नें देखा, एक सन्यासी कुत्ते के साथ वहां इधर-उधर विचर रहा है। उसका शरीर बहुत मोटा था। उसके मोटे कंधे, हाथ, पैर, मुख और सभी अंग सुन्दर और सुडौल थे। अरुन्धती सारे अंगो से हुष्ट-पुष्ट हुए उस सुन्दर संन्यासी को देखकर ऋषियों से बोली-‘क्या आप लोग कभी ऐसे नहीं हो सकेंगें?' वसिष्ठजी ने कहा-हम लोगों की तरह इसको इस बात की चिंता नहीं है कि आज हमारा अग्निहोत्र नहीं हुआ ओर सवेरे तथा शाम को अग्निहोत्र करना है; इसलिए यह कुत्ते के साथ खूब मोटा-ताजा हो गया है। अत्रि बाले- हम लोगों की तरह भूख के मारे उसकी सारी शक्ति नष्ट नहीं हो गयी है तथा बड़े कष्ट से जो वेदों का अध्ययन किया गया था, वह भी हमारी तरह इसका नष्ट नहीं हुआ है, इसलिये यह कुत्ते के साथ मोटा हो गया है।   
  
 
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 33-46|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 63-78}}
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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१०:३८, ७ जुलाई २०१५ का अवतरण

त्रिनवतितमो (93) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: त्रिनवतितमो अध्याय: श्लोक 47-62 का हिन्दी अनुवाद

पशुसख ने कहा- धर्म का पालन करने पर जिस धन की प्राप्ति होती है, उससे बढ़कर कोई धन नहीं है। उस धन को ब्राह्माण ही जानते हैं, अतः मैं भी उसी धर्ममय धन की प्राप्ति का उपाय सीखने के लिये विद्वान ब्राह्माणों की सेवा में लगा हूं। ऋषियों ने कहा- जिसकी प्रजा ये कपटयुक्त फल देने के लिये ले आयी है तथा जो इस प्रकार फल के ब्याज से हमैं सुवर्ण दान कर रहा है, वह राजा अपने दान के साथ ही कुशल से रहे। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! यह कहकर उन सुवर्णयुक्त फलों का परित्याग करके वे समस्त व्रतधारी महर्षि वहां से अन्यत्र चले गये। तब मंत्रियों ने शैव्य के पास जाकर कहा- महाराज ! आपको विदित हो कि उन फलों को देखते ही ऋषियों को यह संदेह हुआ कि हमारे साथ छल किया जा रहा है। इसलिये वे फलों का परित्याग करके दूसरे मार्ग से चले गये हैं। सेवकों के ऐसा कहने पर राजा वृषादर्भि को बड़ा कोप हुआ और वे उन सप्तऋषियों से अपने अपमान का बदला लेने का विचार करके राजधानी को लौट गये। वहां जाकर अत्यन्त कठोर नियमों का पालन करते हुए वे आहवनीय अग्नि में आभिचारिक मन्त्र पढ़कर एक-एक आहुति डालने लगे। आहुति समाप्त होने पर उस अग्नि से एक लोक-भयंकर कृत्या प्रकट हुई । राजा वृषादर्भि ने उसका नाम यातुधानी रखा। कालरात्रि के समान विकराल रूप धारण करने वाली वह कृत्या हाथ जोड़कर राजा के पास उपस्थित हुई और बोली- ‘महाराज ! मैं अपकी किस आज्ञा का पालन करूं?’ वृषादर्भि ने कहा- यातुधानी ! तुम यहां से वन में जाओ और वहां अरुन्धती सहित सातों ऋषियों का, उनकी दासी का और उस दासी के पति का भी नाम पूछकर उसका तात्पर्य अपने मन में धारण करो। इस प्रकार उन सबके नामों का अर्थ समझकर उन्हें मार डालो; उसके बाद जहां इच्छा हो चली जाना। राजा की आज्ञा पाकर यातुधानी ने ‘तथास्तु’ कहकर इसे स्वीकार किया और जहां वे महर्षि विचरा करते थे, उसी वन में चली गयी। भीष्मजी ने कहा-राजन ! उन दिनों वे अत्रि आदि महर्षि उस वन में फल-मूल का आहार करते हुये घूमा करते थे। एक दिन उन महर्षियों नें देखा, एक सन्यासी कुत्ते के साथ वहां इधर-उधर विचर रहा है। उसका शरीर बहुत मोटा था। उसके मोटे कंधे, हाथ, पैर, मुख और सभी अंग सुन्दर और सुडौल थे। अरुन्धती सारे अंगो से हुष्ट-पुष्ट हुए उस सुन्दर संन्यासी को देखकर ऋषियों से बोली-‘क्या आप लोग कभी ऐसे नहीं हो सकेंगें?' वसिष्ठजी ने कहा-हम लोगों की तरह इसको इस बात की चिंता नहीं है कि आज हमारा अग्निहोत्र नहीं हुआ ओर सवेरे तथा शाम को अग्निहोत्र करना है; इसलिए यह कुत्ते के साथ खूब मोटा-ताजा हो गया है। अत्रि बाले- हम लोगों की तरह भूख के मारे उसकी सारी शक्ति नष्ट नहीं हो गयी है तथा बड़े कष्ट से जो वेदों का अध्ययन किया गया था, वह भी हमारी तरह इसका नष्ट नहीं हुआ है, इसलिये यह कुत्ते के साथ मोटा हो गया है।


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