"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 37-50" के अवतरणों में अंतर

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श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान् इतना कहकर चुप हो गये। अब उन्होंने अपनी योगमाया से पिता-माता के के देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया । तब वसुदेवजी ने भगवान् की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर सूतिकागृह से बाहर निकलने की इच्छा की। उसी समय नन्दपत्नी यशोदा के गर्भ से उस योगमाया का जन्म हुआ, जो भगवान् की शक्ति होने के कारण उनके सामान ही जन्म-रहित है । उसी योगमाया ने द्वारपाल और पुरवासियों की समस्त इन्द्रिय वित्तियों की चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गए। बंदीगृह के सभी दरवाजे बंद थे। उनमें बड़े-बड़े, किवाड़, लोहे की जंजीरें और ताले जड़े हुए थे। उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परन्तु वसुदेवजी भगवान् श्रीकृष्ण को गोद में लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गए। ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है। उस समय बादल धीरे-धीरे गरजकर जल की फुहारें छोड़ रहे थे। इसलिय शेषजी अपने फनों से जलको रोकते हुए भगवान् के पीछे-पीछे चलने लगे ।  उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इससे यमुनाजी बहुत बढ़ गयी थीं। उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था। तरल तरंगों के कारण जलपर फेन-ही-फेन हो रहा था। सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे। जैसे सीतापति भगवान् श्रीरामजी को समुद्र ने मार्ग डे दिया था, वैसे ही यमुनाजी ने भगवान् को मार्ग दे दिया ।
 
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान् इतना कहकर चुप हो गये। अब उन्होंने अपनी योगमाया से पिता-माता के के देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया । तब वसुदेवजी ने भगवान् की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर सूतिकागृह से बाहर निकलने की इच्छा की। उसी समय नन्दपत्नी यशोदा के गर्भ से उस योगमाया का जन्म हुआ, जो भगवान् की शक्ति होने के कारण उनके सामान ही जन्म-रहित है । उसी योगमाया ने द्वारपाल और पुरवासियों की समस्त इन्द्रिय वित्तियों की चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गए। बंदीगृह के सभी दरवाजे बंद थे। उनमें बड़े-बड़े, किवाड़, लोहे की जंजीरें और ताले जड़े हुए थे। उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परन्तु वसुदेवजी भगवान् श्रीकृष्ण को गोद में लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गए। ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है। उस समय बादल धीरे-धीरे गरजकर जल की फुहारें छोड़ रहे थे। इसलिय शेषजी अपने फनों से जलको रोकते हुए भगवान् के पीछे-पीछे चलने लगे ।  उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इससे यमुनाजी बहुत बढ़ गयी थीं। उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था। तरल तरंगों के कारण जलपर फेन-ही-फेन हो रहा था। सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे। जैसे सीतापति भगवान् श्रीरामजी को समुद्र ने मार्ग डे दिया था, वैसे ही यमुनाजी ने भगवान् को मार्ग दे दिया ।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०५:२१, ८ जुलाई २०१५ का अवतरण

दशम स्कन्ध: तृतीय अध्याय (पूर्वाध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: तृतीय अध्याय: श्लोक 37-50 का हिन्दी अनुवाद

पुण्यमयी देवि! उस समय मैं तुम दोनों पर प्रसन्न हुआ। क्योंकि तुम दोनों ने तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्ति से अपने ह्रदय में नित्य-निरन्तर मेरी भावना की थी। उस समय तुम दोनों की अभिलाषा पूर्ण करने के लिए वर देनेवालों का राजा मैं इसी रूप से तुम्हारे सामने प्रकट हुआ। जब मैंने कहा कि ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो’, तब तुम दोनों ने मेरे-जैसा पूत्र माँगा । उस समय तक विषय-भोगों से तुम लोगों का कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था। तुम्हारे कोई सन्तान भी न थी। इसलिए मेरी माया से मोहित होकर तुम दोनों ने मुझसे मोक्ष नहीं माँगा । तुम्हें मेरे-जैसा पुत्र होने का वर पाप्त हो गया और मैं वहां से चला गया। अब सफलमनोरथ होकर तुमलोग विषयों का भोग करने लगे । मैंने देखा कि संसार में शील-स्वभाव, उदारता तथा अन्य गुणों में मेरे-जैसा दूसरा कोई नहीं है; इसलिए मैं ही तुम दोनों का पुत्र हुआ और उस समय मैं ‘पृश्निगर्भ’ के नाम से विख्यात हुआ । फिर दूसरे जन्म में तुम हुईं अदिति और वसुदेव हुए कश्यप। उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। मेरा नाम था ‘उपेन्द्र’ । शरीर छोटा होने के कारण लोग मुझे ‘वामन’ भी कहते थे । सती देवकी! तुम्हारे इस तीसरे जन्म में भी मैं उसी रूप से फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ। मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है ।

मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिये दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारों का स्मरण हो जाय। यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो केवल मनुष्य-शरीर से मेरे अवतार की पहचान नहीं हो पाती । तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव तथा निरन्तर ब्रम्हभाव रखना। इस प्रकार वात्लास्य-स्नेह और चिन्तन के द्वारा तुम्हें मेरे परम पद की प्राप्ति होगी ।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान् इतना कहकर चुप हो गये। अब उन्होंने अपनी योगमाया से पिता-माता के के देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया । तब वसुदेवजी ने भगवान् की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर सूतिकागृह से बाहर निकलने की इच्छा की। उसी समय नन्दपत्नी यशोदा के गर्भ से उस योगमाया का जन्म हुआ, जो भगवान् की शक्ति होने के कारण उनके सामान ही जन्म-रहित है । उसी योगमाया ने द्वारपाल और पुरवासियों की समस्त इन्द्रिय वित्तियों की चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गए। बंदीगृह के सभी दरवाजे बंद थे। उनमें बड़े-बड़े, किवाड़, लोहे की जंजीरें और ताले जड़े हुए थे। उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परन्तु वसुदेवजी भगवान् श्रीकृष्ण को गोद में लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गए। ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है। उस समय बादल धीरे-धीरे गरजकर जल की फुहारें छोड़ रहे थे। इसलिय शेषजी अपने फनों से जलको रोकते हुए भगवान् के पीछे-पीछे चलने लगे । उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इससे यमुनाजी बहुत बढ़ गयी थीं। उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था। तरल तरंगों के कारण जलपर फेन-ही-फेन हो रहा था। सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे। जैसे सीतापति भगवान् श्रीरामजी को समुद्र ने मार्ग डे दिया था, वैसे ही यमुनाजी ने भगवान् को मार्ग दे दिया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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