"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 21-28" के अवतरणों में अंतर

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माता यशोदा तो अपने लाड़ले लाल के पीछे कालियादह में कूदने ही जा रही थी; परन्तु गोपियों ने उन्हें पकड़ लिया। उनके ह्रदय में भी वैसी ही पीड़ा थी। उनकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखें श्रीकृष्ण के मुखकमल लगी थीं। जिनके शरीर में चेतना थी, वे व्रजमोहन श्रीकृष्ण की पूतना-वध आदि की प्यारी-प्यारी ऐश्वर्य लीलाएँ कह-कह कर यशोदाजी को धीरज बँधाने लगीं। किन्तु अधिकांश तो मुर्दे की तरह पड़ ही गयी थीं । परीक्षित्! नन्दबाबा आदि ने जीवन-प्राण तो श्रीकृष्ण ही थे। वे श्रीकृष्ण के लिये कालियदह में घुसने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण का प्रभाव जानने वाले भगवान् बलरामजी ने किन्हीं को समझा-बुझाकर, किन्हीं को बलपूर्वक और किन्हीं को उनके हृदयों में प्रेरणा करके रोक दिया ।  
 
माता यशोदा तो अपने लाड़ले लाल के पीछे कालियादह में कूदने ही जा रही थी; परन्तु गोपियों ने उन्हें पकड़ लिया। उनके ह्रदय में भी वैसी ही पीड़ा थी। उनकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखें श्रीकृष्ण के मुखकमल लगी थीं। जिनके शरीर में चेतना थी, वे व्रजमोहन श्रीकृष्ण की पूतना-वध आदि की प्यारी-प्यारी ऐश्वर्य लीलाएँ कह-कह कर यशोदाजी को धीरज बँधाने लगीं। किन्तु अधिकांश तो मुर्दे की तरह पड़ ही गयी थीं । परीक्षित्! नन्दबाबा आदि ने जीवन-प्राण तो श्रीकृष्ण ही थे। वे श्रीकृष्ण के लिये कालियदह में घुसने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण का प्रभाव जानने वाले भगवान् बलरामजी ने किन्हीं को समझा-बुझाकर, किन्हीं को बलपूर्वक और किन्हीं को उनके हृदयों में प्रेरणा करके रोक दिया ।  
  
परीक्षित्! यह साँप के शरीर से बँध जाना तो श्रीकृष्ण की मनुष्यों-जैसी एक लीला थी। जब उन्होंने देखा कि व्रज के सभी लोग स्त्री और बच्चों के साथ मेरे लिये इस प्रकार अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं और सचमुच मेरे सिवा इनका कोई दूसरा सहारा भी नहीं है, तब वे एक मुहूर्त तक सर्प के बन्धन में रहकर बाहर निकल आये । भगवान् श्रीकृष्ण ने उस समय अपना शरीर फुलाकर खूब मोटा कर लिया। इससे साँप का शरीर टूटने लगा। वह अपना नागपाश छोड़कर अलग खड़ा हो गया और क्रोध से आग बबूला हो अपने फण ऊँचा करके फुफकारें मारने लगा। घात मिलते ही श्रीकृष्ण पर चोट करने के लिये वह उनकी ओर टकटकी लगाकर देखने लगा। उस समय उसके नथुनों से विष की फुहारें निकल रही थीं। उसकी आँखें स्थिर थीं और इतनी लाल-लाल हो रही थीं, मानो भट्ठी पर तपाया हुआ खपड़ा हो। उसके मुँह से आग की लपटें निकल रही थीं । उस समय कालिय नाग अपनी दुहरी जीभ लपलपाकर अपने होंठों के दोनों किनारों को चाट रहा था और अपनी कराल आँखों से विष की ज्वाला उगलता जा रहा था। अपने वाहन गरुड़ के समान भगवान् श्रीकृष्ण उसके साथ खेलते हुए पैतरा बदलने लगे और वह साँप भी उनपर चोट करने का दाँव देखता हुआ पैतरा बदलने लगा । इस प्रकार पैतरा बदलते-बदलते उसका बल क्षीण हो गया। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उसके बड़े-बड़े सिरों को तनिक दबा दिया और उछलकर उन पर सवार हो गये। कालिय नाग के मस्तकों पर बहुत-सी लाल-लाल मणियाँ थीं। उनके स्पर्श से भगवान् के सुकुमार तलुओं की लालिमा और भी बढ़ गयी। नृत्य-गान आदि समस्त कलाओं के आदिप्रवर्तक भगवान् श्रीकृष्ण उसके सिरों पर कलापूर्ण नृत्य करने लगे । भगवान् के प्यारे भक्त गन्धर्व, सिद्ध, देवता, चारण और देवांगनाओं ने जब देखा कि भगवान् नृत्य करना चाहते हैं, तब वे बड़े प्रेम से मृदंग, ढोल, नगारे आदि बाजे बजाते हुए, सुन्दर-सुन्दर गीत गाते हुए, पुष्पों की वर्षा करते हुए और अपने को निछावर करते हुए भेँट ले-लेकर उसी समय भगवान् के पास आ पहुँचे ॥ २७ ॥ परीक्षित्! कालिय नाग के एक सौ एक सिर थे। वह अपने जिस सिर को नहीं झुकता था, उसी को प्रचण्ड दण्डधारी भगवान् अपने पैरों कि चोट से कुचल डालते। उससे कालिय नाग की जीवन शक्ति क्षीण हो चली, वह मुँह और नथनों से खून उगलने लगा। अन्त में चक्कर काटते-काटते वह बेहोश हो गया ।
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परीक्षित्! यह साँप के शरीर से बँध जाना तो श्रीकृष्ण की मनुष्यों-जैसी एक लीला थी। जब उन्होंने देखा कि व्रज के सभी लोग स्त्री और बच्चों के साथ मेरे लिये इस प्रकार अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं और सचमुच मेरे सिवा इनका कोई दूसरा सहारा भी नहीं है, तब वे एक मुहूर्त तक सर्प के बन्धन में रहकर बाहर निकल आये । भगवान् श्रीकृष्ण ने उस समय अपना शरीर फुलाकर खूब मोटा कर लिया। इससे साँप का शरीर टूटने लगा। वह अपना नागपाश छोड़कर अलग खड़ा हो गया और क्रोध से आग बबूला हो अपने फण ऊँचा करके फुफकारें मारने लगा। घात मिलते ही श्रीकृष्ण पर चोट करने के लिये वह उनकी ओर टकटकी लगाकर देखने लगा। उस समय उसके नथुनों से विष की फुहारें निकल रही थीं। उसकी आँखें स्थिर थीं और इतनी लाल-लाल हो रही थीं, मानो भट्ठी पर तपाया हुआ खपड़ा हो। उसके मुँह से आग की लपटें निकल रही थीं । उस समय कालिय नाग अपनी दुहरी जीभ लपलपाकर अपने होंठों के दोनों किनारों को चाट रहा था और अपनी कराल आँखों से विष की ज्वाला उगलता जा रहा था। अपने वाहन गरुड़ के समान भगवान् श्रीकृष्ण उसके साथ खेलते हुए पैतरा बदलने लगे और वह साँप भी उनपर चोट करने का दाँव देखता हुआ पैतरा बदलने लगा । इस प्रकार पैतरा बदलते-बदलते उसका बल क्षीण हो गया। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उसके बड़े-बड़े सिरों को तनिक दबा दिया और उछलकर उन पर सवार हो गये। कालिय नाग के मस्तकों पर बहुत-सी लाल-लाल मणियाँ थीं। उनके स्पर्श से भगवान् के सुकुमार तलुओं की लालिमा और भी बढ़ गयी। नृत्य-गान आदि समस्त कलाओं के आदिप्रवर्तक भगवान् श्रीकृष्ण उसके सिरों पर कलापूर्ण नृत्य करने लगे । भगवान् के प्यारे भक्त गन्धर्व, सिद्ध, देवता, चारण और देवांगनाओं ने जब देखा कि भगवान् नृत्य करना चाहते हैं, तब वे बड़े प्रेम से मृदंग, ढोल, नगारे आदि बाजे बजाते हुए, सुन्दर-सुन्दर गीत गाते हुए, पुष्पों की वर्षा करते हुए और अपने को निछावर करते हुए भेँट ले-लेकर उसी समय भगवान् के पास आ पहुँचे परीक्षित्! कालिय नाग के एक सौ एक सिर थे। वह अपने जिस सिर को नहीं झुकता था, उसी को प्रचण्ड दण्डधारी भगवान् अपने पैरों कि चोट से कुचल डालते। उससे कालिय नाग की जीवन शक्ति क्षीण हो चली, वह मुँह और नथनों से खून उगलने लगा। अन्त में चक्कर काटते-काटते वह बेहोश हो गया ।
 
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०६:३९, ९ जुलाई २०१५ का अवतरण

दशम स्कन्ध: षोडशोऽध्यायः(16) (पूर्वाध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षोडशोऽध्यायः श्लोक 21-28 का हिन्दी अनुवाद

माता यशोदा तो अपने लाड़ले लाल के पीछे कालियादह में कूदने ही जा रही थी; परन्तु गोपियों ने उन्हें पकड़ लिया। उनके ह्रदय में भी वैसी ही पीड़ा थी। उनकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखें श्रीकृष्ण के मुखकमल लगी थीं। जिनके शरीर में चेतना थी, वे व्रजमोहन श्रीकृष्ण की पूतना-वध आदि की प्यारी-प्यारी ऐश्वर्य लीलाएँ कह-कह कर यशोदाजी को धीरज बँधाने लगीं। किन्तु अधिकांश तो मुर्दे की तरह पड़ ही गयी थीं । परीक्षित्! नन्दबाबा आदि ने जीवन-प्राण तो श्रीकृष्ण ही थे। वे श्रीकृष्ण के लिये कालियदह में घुसने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण का प्रभाव जानने वाले भगवान् बलरामजी ने किन्हीं को समझा-बुझाकर, किन्हीं को बलपूर्वक और किन्हीं को उनके हृदयों में प्रेरणा करके रोक दिया ।

परीक्षित्! यह साँप के शरीर से बँध जाना तो श्रीकृष्ण की मनुष्यों-जैसी एक लीला थी। जब उन्होंने देखा कि व्रज के सभी लोग स्त्री और बच्चों के साथ मेरे लिये इस प्रकार अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं और सचमुच मेरे सिवा इनका कोई दूसरा सहारा भी नहीं है, तब वे एक मुहूर्त तक सर्प के बन्धन में रहकर बाहर निकल आये । भगवान् श्रीकृष्ण ने उस समय अपना शरीर फुलाकर खूब मोटा कर लिया। इससे साँप का शरीर टूटने लगा। वह अपना नागपाश छोड़कर अलग खड़ा हो गया और क्रोध से आग बबूला हो अपने फण ऊँचा करके फुफकारें मारने लगा। घात मिलते ही श्रीकृष्ण पर चोट करने के लिये वह उनकी ओर टकटकी लगाकर देखने लगा। उस समय उसके नथुनों से विष की फुहारें निकल रही थीं। उसकी आँखें स्थिर थीं और इतनी लाल-लाल हो रही थीं, मानो भट्ठी पर तपाया हुआ खपड़ा हो। उसके मुँह से आग की लपटें निकल रही थीं । उस समय कालिय नाग अपनी दुहरी जीभ लपलपाकर अपने होंठों के दोनों किनारों को चाट रहा था और अपनी कराल आँखों से विष की ज्वाला उगलता जा रहा था। अपने वाहन गरुड़ के समान भगवान् श्रीकृष्ण उसके साथ खेलते हुए पैतरा बदलने लगे और वह साँप भी उनपर चोट करने का दाँव देखता हुआ पैतरा बदलने लगा । इस प्रकार पैतरा बदलते-बदलते उसका बल क्षीण हो गया। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उसके बड़े-बड़े सिरों को तनिक दबा दिया और उछलकर उन पर सवार हो गये। कालिय नाग के मस्तकों पर बहुत-सी लाल-लाल मणियाँ थीं। उनके स्पर्श से भगवान् के सुकुमार तलुओं की लालिमा और भी बढ़ गयी। नृत्य-गान आदि समस्त कलाओं के आदिप्रवर्तक भगवान् श्रीकृष्ण उसके सिरों पर कलापूर्ण नृत्य करने लगे । भगवान् के प्यारे भक्त गन्धर्व, सिद्ध, देवता, चारण और देवांगनाओं ने जब देखा कि भगवान् नृत्य करना चाहते हैं, तब वे बड़े प्रेम से मृदंग, ढोल, नगारे आदि बाजे बजाते हुए, सुन्दर-सुन्दर गीत गाते हुए, पुष्पों की वर्षा करते हुए और अपने को निछावर करते हुए भेँट ले-लेकर उसी समय भगवान् के पास आ पहुँचे । परीक्षित्! कालिय नाग के एक सौ एक सिर थे। वह अपने जिस सिर को नहीं झुकता था, उसी को प्रचण्ड दण्डधारी भगवान् अपने पैरों कि चोट से कुचल डालते। उससे कालिय नाग की जीवन शक्ति क्षीण हो चली, वह मुँह और नथनों से खून उगलने लगा। अन्त में चक्कर काटते-काटते वह बेहोश हो गया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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