"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 121 श्लोक 17-28" के अवतरणों में अंतर

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==एकविंशत्यधिकशततम (121) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)==
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==एकविंशत्यधिकशततम (121) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)==
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: एकविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: एकविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
 
ययाति ने कहा– मैं राजर्षि ययाति हूँ । अपना पुण्य क्षीण होने के कारण स्वर्ग से नीचे गिर गया हूँ । गिरते समय मेरे मन में यह चिंतन चल रहा था कि मैं सत्पुरुषों के बीच में गिरूँ । अत: आप लोगों के बीच में आ पड़ा हूँ । वे राजा बोले– पुरुषशिरोमणे ! आपका यह मनोरथ सफल हो । आप हम सब लोगों के यज्ञों का फल और धर्म ग्रहण करें। ययाति ने कहा – प्रतिग्रह ही जिसका धन है, वह ब्राह्मण मैं नहीं हूँ । मैं तो क्षत्रिय हूँ । अत: मेरी बुद्धि पराये पुण्य का (ग्रहण करके उनका पुण्य) क्षय करने के लिए उद्यत नहीं है। नारदजी कहते हैं– इसी समय उन राजाओं ने अपनी माता माधवी को देखा, जो मृगों की भांति उन्हीं के साथ विचरती हुई क्रमश: वहाँ आ पहुंचीं थी । उसे प्रणाम करके राजाओं ने इस प्रकार पूछा – ‘तपोधने ! यहाँ आपके पधारने का क्या प्रयोजन है ? हम आपकी किस आज्ञा का पालन करें ? हम सभी आपके पुत्र हैं; अत: हमें आप योग्य सेवा के लिए आज्ञा प्रदान करें’। उनकी ये बातें सुनकर माधावी को बड़ी प्रसन्नता हुई । वह अपने पिता ययाति के पास गई और उसने उन्हें प्रणाम किया। तदनंतर तपस्विनी माधवी ने उन पुत्रों के सिर पर हाथ रखकर अपने पिता से कहा – ‘राजेंद्र ! ये सभी आपके दौहित्र (नाती) और मेरे पुत्र हैं, पराये नहीं हैं । ‘ये आपको तार देंगे । दौहित्रों के द्वारा मातामह (नाना) का यह उद्धार पुरातन वेदशास्त्र में स्पष्ट देखा गया है । राजन ! मैं आपकी पुत्री माधवी हूँ और इस तपोवन में मृगों के समान जीवनचर्या बनाकर विचरती हूँ। ‘पृथ्वीनाथ ! मैंने भी महान् धर्म का संचय किया है । उसका आधा भाग आप ग्रहण करें । राजन् ! सब मनुष्य अपनी संतानों के किए हुए सत्कर्मों के फल के भागी होते हैं । इसलिए वे दौहित्रों की इच्छा करते हैं, जैसे आपने की थी’। तब उन सभी राजाओं ने अपनी माता के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और स्वर्गभृष्ट नाना को भी नमस्कार करके अपने उच्च, अनुपम और स्नेहपूर्ण स्वर से पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए उन्हें तारने के उद्देश्य से उनसे कुछ कहने का विचार किया इसी बीच में उस वन से गालव मुनि भी वहाँ आ पहुँचे तथा राजा से इस प्रकार बोले– ‘महाराज ! आप मेरी तपस्या का आठवां भाग लेकर उसके बल से स्वर्गलोक में पहुँच जायें।
 
ययाति ने कहा– मैं राजर्षि ययाति हूँ । अपना पुण्य क्षीण होने के कारण स्वर्ग से नीचे गिर गया हूँ । गिरते समय मेरे मन में यह चिंतन चल रहा था कि मैं सत्पुरुषों के बीच में गिरूँ । अत: आप लोगों के बीच में आ पड़ा हूँ । वे राजा बोले– पुरुषशिरोमणे ! आपका यह मनोरथ सफल हो । आप हम सब लोगों के यज्ञों का फल और धर्म ग्रहण करें। ययाति ने कहा – प्रतिग्रह ही जिसका धन है, वह ब्राह्मण मैं नहीं हूँ । मैं तो क्षत्रिय हूँ । अत: मेरी बुद्धि पराये पुण्य का (ग्रहण करके उनका पुण्य) क्षय करने के लिए उद्यत नहीं है। नारदजी कहते हैं– इसी समय उन राजाओं ने अपनी माता माधवी को देखा, जो मृगों की भांति उन्हीं के साथ विचरती हुई क्रमश: वहाँ आ पहुंचीं थी । उसे प्रणाम करके राजाओं ने इस प्रकार पूछा – ‘तपोधने ! यहाँ आपके पधारने का क्या प्रयोजन है ? हम आपकी किस आज्ञा का पालन करें ? हम सभी आपके पुत्र हैं; अत: हमें आप योग्य सेवा के लिए आज्ञा प्रदान करें’। उनकी ये बातें सुनकर माधावी को बड़ी प्रसन्नता हुई । वह अपने पिता ययाति के पास गई और उसने उन्हें प्रणाम किया। तदनंतर तपस्विनी माधवी ने उन पुत्रों के सिर पर हाथ रखकर अपने पिता से कहा – ‘राजेंद्र ! ये सभी आपके दौहित्र (नाती) और मेरे पुत्र हैं, पराये नहीं हैं । ‘ये आपको तार देंगे । दौहित्रों के द्वारा मातामह (नाना) का यह उद्धार पुरातन वेदशास्त्र में स्पष्ट देखा गया है । राजन ! मैं आपकी पुत्री माधवी हूँ और इस तपोवन में मृगों के समान जीवनचर्या बनाकर विचरती हूँ। ‘पृथ्वीनाथ ! मैंने भी महान् धर्म का संचय किया है । उसका आधा भाग आप ग्रहण करें । राजन् ! सब मनुष्य अपनी संतानों के किए हुए सत्कर्मों के फल के भागी होते हैं । इसलिए वे दौहित्रों की इच्छा करते हैं, जैसे आपने की थी’। तब उन सभी राजाओं ने अपनी माता के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और स्वर्गभृष्ट नाना को भी नमस्कार करके अपने उच्च, अनुपम और स्नेहपूर्ण स्वर से पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए उन्हें तारने के उद्देश्य से उनसे कुछ कहने का विचार किया इसी बीच में उस वन से गालव मुनि भी वहाँ आ पहुँचे तथा राजा से इस प्रकार बोले– ‘महाराज ! आप मेरी तपस्या का आठवां भाग लेकर उसके बल से स्वर्गलोक में पहुँच जायें।
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत उद़योग पर्व के अन्‍तर्गत भगवद़धान पर्व में गालव चरित्र के प्रसंग में ययाति का स्‍वर्गलोक से पतन विषयक एक सौ इक्‍कीसवां अध्‍याय पूरा हुआ। </div>  
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत उद़योग पर्व के अन्‍तर्गत भगवद़धान पर्व में गालव चरित्र के प्रसंग में ययाति का स्‍वर्गलोक से पतन विषयक एक सौ इक्‍कीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ। </div>  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०९:२१, १४ जुलाई २०१५ का अवतरण

एकविंशत्यधिकशततम (121) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: एकविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद

ययाति ने कहा– मैं राजर्षि ययाति हूँ । अपना पुण्य क्षीण होने के कारण स्वर्ग से नीचे गिर गया हूँ । गिरते समय मेरे मन में यह चिंतन चल रहा था कि मैं सत्पुरुषों के बीच में गिरूँ । अत: आप लोगों के बीच में आ पड़ा हूँ । वे राजा बोले– पुरुषशिरोमणे ! आपका यह मनोरथ सफल हो । आप हम सब लोगों के यज्ञों का फल और धर्म ग्रहण करें। ययाति ने कहा – प्रतिग्रह ही जिसका धन है, वह ब्राह्मण मैं नहीं हूँ । मैं तो क्षत्रिय हूँ । अत: मेरी बुद्धि पराये पुण्य का (ग्रहण करके उनका पुण्य) क्षय करने के लिए उद्यत नहीं है। नारदजी कहते हैं– इसी समय उन राजाओं ने अपनी माता माधवी को देखा, जो मृगों की भांति उन्हीं के साथ विचरती हुई क्रमश: वहाँ आ पहुंचीं थी । उसे प्रणाम करके राजाओं ने इस प्रकार पूछा – ‘तपोधने ! यहाँ आपके पधारने का क्या प्रयोजन है ? हम आपकी किस आज्ञा का पालन करें ? हम सभी आपके पुत्र हैं; अत: हमें आप योग्य सेवा के लिए आज्ञा प्रदान करें’। उनकी ये बातें सुनकर माधावी को बड़ी प्रसन्नता हुई । वह अपने पिता ययाति के पास गई और उसने उन्हें प्रणाम किया। तदनंतर तपस्विनी माधवी ने उन पुत्रों के सिर पर हाथ रखकर अपने पिता से कहा – ‘राजेंद्र ! ये सभी आपके दौहित्र (नाती) और मेरे पुत्र हैं, पराये नहीं हैं । ‘ये आपको तार देंगे । दौहित्रों के द्वारा मातामह (नाना) का यह उद्धार पुरातन वेदशास्त्र में स्पष्ट देखा गया है । राजन ! मैं आपकी पुत्री माधवी हूँ और इस तपोवन में मृगों के समान जीवनचर्या बनाकर विचरती हूँ। ‘पृथ्वीनाथ ! मैंने भी महान् धर्म का संचय किया है । उसका आधा भाग आप ग्रहण करें । राजन् ! सब मनुष्य अपनी संतानों के किए हुए सत्कर्मों के फल के भागी होते हैं । इसलिए वे दौहित्रों की इच्छा करते हैं, जैसे आपने की थी’। तब उन सभी राजाओं ने अपनी माता के चरणों में मस्तक रखकर प्रणाम किया और स्वर्गभृष्ट नाना को भी नमस्कार करके अपने उच्च, अनुपम और स्नेहपूर्ण स्वर से पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए उन्हें तारने के उद्देश्य से उनसे कुछ कहने का विचार किया इसी बीच में उस वन से गालव मुनि भी वहाँ आ पहुँचे तथा राजा से इस प्रकार बोले– ‘महाराज ! आप मेरी तपस्या का आठवां भाग लेकर उसके बल से स्वर्गलोक में पहुँच जायें।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद़योग पर्व के अन्‍तर्गत भगवद़धान पर्व में गालव चरित्र के प्रसंग में ययाति का स्‍वर्गलोक से पतन विषयक एक सौ इक्‍कीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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