"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 146 श्लोक 20-26": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: षट्चत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-26 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
ऐसा कहकर उसने सूखे पत्तों से पुन: आग प्रज्वलित की और बडे़ हर्ष में भर कर व्याध से कहा- ‘मैंने ॠषियों, देवताओं, पितरों तथा महात्माओं के मुख से पहले सुना है कि अतिथि की पूजा करने में महान धर्म है। ‘सौम्य! अत: मैंने भी आज अतिथि की उत्तम पूजा करने का निश्चय कर लिया है। आप मुझे ही ग्रहण करके मुझ पर कृपा कीजिये। यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हॅू’। ऐसा कहकर अतिथि–पूजन की प्रतिज्ञा करके उस परम बुद्धिमान पक्षी ने तीन बार अग्निदेव की परिक्रमा की, और हंसते हुए-से आग में प्रवेश किया। पक्षी को आग के भीतर घुसा हुआ देख व्याध मन-ही–मन चिन्ता करने लगा कि मैंने यह क्या कर डाला ? ‘अहो! अपने कर्म से निन्दित हुए मुझ क्रूरकर्मा व्याध के जीवन में यह सबसे भयंकर और महान् पाप होगा, इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार कबूतर की वैसी अवस्था देखकर अपने कर्मों की निन्दा करते हुए उस व्याध ने अनेक प्रकार की बातें कहकर बहुत विलाप किया। | ऐसा कहकर उसने सूखे पत्तों से पुन: आग प्रज्वलित की और बडे़ हर्ष में भर कर व्याध से कहा- ‘मैंने ॠषियों, देवताओं, पितरों तथा महात्माओं के मुख से पहले सुना है कि अतिथि की पूजा करने में महान धर्म है। ‘सौम्य! अत: मैंने भी आज अतिथि की उत्तम पूजा करने का निश्चय कर लिया है। आप मुझे ही ग्रहण करके मुझ पर कृपा कीजिये। यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हॅू’। ऐसा कहकर अतिथि–पूजन की प्रतिज्ञा करके उस परम बुद्धिमान पक्षी ने तीन बार अग्निदेव की परिक्रमा की, और हंसते हुए-से आग में प्रवेश किया। पक्षी को आग के भीतर घुसा हुआ देख व्याध मन-ही–मन चिन्ता करने लगा कि मैंने यह क्या कर डाला ? ‘अहो! अपने कर्म से निन्दित हुए मुझ क्रूरकर्मा व्याध के जीवन में यह सबसे भयंकर और महान् पाप होगा, इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार कबूतर की वैसी अवस्था देखकर अपने कर्मों की निन्दा करते हुए उस व्याध ने अनेक प्रकार की बातें कहकर बहुत विलाप किया। |
१२:२४, १७ जुलाई २०१५ का अवतरण
षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
ऐसा कहकर उसने सूखे पत्तों से पुन: आग प्रज्वलित की और बडे़ हर्ष में भर कर व्याध से कहा- ‘मैंने ॠषियों, देवताओं, पितरों तथा महात्माओं के मुख से पहले सुना है कि अतिथि की पूजा करने में महान धर्म है। ‘सौम्य! अत: मैंने भी आज अतिथि की उत्तम पूजा करने का निश्चय कर लिया है। आप मुझे ही ग्रहण करके मुझ पर कृपा कीजिये। यह मैं आपसे सच्ची बात कहता हॅू’। ऐसा कहकर अतिथि–पूजन की प्रतिज्ञा करके उस परम बुद्धिमान पक्षी ने तीन बार अग्निदेव की परिक्रमा की, और हंसते हुए-से आग में प्रवेश किया। पक्षी को आग के भीतर घुसा हुआ देख व्याध मन-ही–मन चिन्ता करने लगा कि मैंने यह क्या कर डाला ? ‘अहो! अपने कर्म से निन्दित हुए मुझ क्रूरकर्मा व्याध के जीवन में यह सबसे भयंकर और महान् पाप होगा, इसमें संशय नहीं है। इस प्रकार कबूतर की वैसी अवस्था देखकर अपने कर्मों की निन्दा करते हुए उस व्याध ने अनेक प्रकार की बातें कहकर बहुत विलाप किया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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