"महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 102-124" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 102-124 का हिन्दी अनुवाद</div>
|+ <font size="+1">महाभारत पर्वसंग्रह पर्व द्वितीय अध्याय श्लोक 143-179 हिन्दी अनुवाद</font>
 
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जिस समय महात्मा [[पाण्डव]] वनवास के लिये यात्रा कर रहे थे, उस समय बहुत से पुरवासी लोग बुद्धिमान् [[युधिष्ठिर|धर्मराज युधिष्ठिर]] के पीछे-पीछे चलने लगे। महर्षि धौम्य के उपदेश से उन्हें सूर्य भगवान् की कृपा प्राप्त हुई और अक्षय अन्न का पात्र मिला। उधर [[विदुर|विदुरजी]] [[धृरराष्ट्र]] को हितकारी उपदेश कर रहे थे, परंतु धृतराष्ट्र ने उनका परित्याग कर दिया। धृतराष्ट्र के परित्याग पर विदुरजी पाण्डवों के पास चले गये और फिर धृतराष्ट्र का आदेश प्राप्त होने पर उनके पास लौट आये। धृतराष्ट्र नन्दन दुर्मति दुर्योधन ने कर्ण के प्रोत्साहन से वनवासी पाण्डवों को मार डालने का विचार किया। [[दुर्योधन]] के इस दूषित भाव को जानकर महर्षि व्यास झटपट यहाँ आ पहुँचे और उन्होंने दुर्योधन की यात्रा का विषेध कर दिया। इसी प्रसंग में सुरभि का आख्यान भी है। मैत्रेय ऋषि ने आकर राजा धृतराष्ट्र को उपदेश किया और उन्होंने ही राजा दुर्योधन को शाप दे दिया। इसी पर्व में यह कथा हैं कि युद्ध में [[भीम|भीमसेन]] ने [[किर्मीर]] को मार डाला। पाण्डवों के पास वृष्णिवंशी और पांचाल आये। पाण्डवों ने उन सबके साथ वार्तालाप किया। [[द्रौपदी]] [[श्रीकृष्ण]] ने दुःखार्त द्रौपदी को आश्वासन दिया। यह सब कथा वन पर्व में है। इसी पर्व मे [[व्यास|महर्षि व्यास]] ने सौभवध की कथा कही है। श्रीकृष्ण सुभद्रा को पुत्र सहित द्वारका में ले गये। धृष्टद्यृम्न द्रौपदी के पुत्रों को अपने साथ लिवा ले गये। तदनन्तर पाण्डवों ने परम रमणीय द्वैतवन में प्रवेश किया। इसी पर्व में युधिष्ठिर एवं द्रौपदी का संवाद तथा युधिष्ठिर और भीमसेन के संवाद का भली भाँति वर्णन किया गया है। महर्षि व्यास पाण्डवों के पास आये और उन्होंने राजा युधिष्ठिर को प्रतिस्मृति नामक मन्त्र विद्या का उपदेश दिया। व्यास जी के चले जाने पर पाण्डवों ने काम्यकवन की यात्रा की। इसके बाद अभिततेजस्वी [[अर्जुन]] अस्त्र प्राप्त करने के लिये अपने भाईयों से अलग चले गये। वहीं किरात-वेशधारी महादेव जी के साथ अर्जुन का युद्ध हुआ, लोकपालों के दर्शन हुए और अस्त्र की प्राप्ति हुई। इसके बाद अर्जुन अस्त्र के लिये इन्द्रलोक में गये यह सुनकर धृतराष्ट्र को बड़ी चिन्ता हुई। इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर को शुद्धहृदय महर्षि बृहदश्व का दर्शन हुआ। युधिष्ठिर ने आर्त होकर उन्हें अपनी दुःखगाथा सुनायी और विलाप किया। इसी प्रसंग में नलोपाख्यान आता है, जिसमें धर्मानिष्ठा का अनुपम आदर्श है और जिसे पढ़-सुनकर हृदय में करूणा की धारा बहने लगती है। दमयन्ती का द्दढ़ धैर्य और नल का चरित्र यहीं पढ़ने को मिलते हैं। उन्हीं महर्षि से पाण्डवों को अक्ष-हृदय (जूए के रहस्य) की प्राप्ति हुई। यहीं स्वर्ग से महर्षि लोमश पाण्डवों के पास पधारे। लोमश ने ही वनवासी महात्मा पाण्डवों को यह बात बतलायी कि अर्जुन स्वर्ग में किस प्रकार अस्त्र विद्या सिख रहे हैं। इसी पर्व में अर्जुन का संदेश पाकर पाण्डवों ने तीर्थ यात्रा की। उन्हें तीर्थ यात्रा का फल प्राप्त हुआ और कौन तीर्थ कितने पुण्यप्रद होते हैं-इस बात का वर्णन हुआ हैं। इसके बाद [[नारद|महर्षि नारद]] ने पुलस्त्य तीर्थ की यात्रा करने की प्रेरणा दी और महात्मा पाण्डवों ने हाँ की यात्रा की। यहीं [[इन्द्र]] के द्वारा [[कर्ण]] को कुण्डलों से वंचित करने का तथा राजा गयके यज्ञवैभव का वर्णन किया गया हैं। इसके बाद अगस्त्व चरित्र है, जिसमें उनके बातापिभक्षण तथा संतान के लिये लोपामुद्रा के साथ समागम का वर्णन है। इसके पश्चात् कौमार ब्रह्मचारी ऋष्यश्रृंग का चरित्र है। फिर परम तेजस्वी जमदग्निनन्दन [[परशुराम]] का चरित्र है। इसी चरित्र में कार्तवीर्य अर्जुन तथा हयवंशी राजाओं के वध का वर्णन किया गया है। प्रभास तीर्थ में पाण्डवों एवं यादवों के मिलने की कथा भी इसी में है। इसके बाद [[सुकन्या]] का उपाख्यान है। इसी में यह कथा है कि भृगुनन्दन च्यवन ने शर्याति के यज्ञ में [[अश्विनी|अश्विनी कुमारों]] को सोमपान का अधिकारी बना दिया। उन्हीं दोनों ने च्यवन मुनि को बूढ़े से जवान बना दिया। राजा मान्धाता की कथा भी इसी पर्व में कहीं गयी है। यहीं जन्तूपाख्यान है। इसमें राजा सोमक ने बहुत से पुत्र प्राप्त करने के लिये एक पुत्र से यजन किया और उसके फलस्वरूप सौ पुत्र प्राप्त किये। इसके बाद श्येन (बाज) और कपोत (कबूतर) का सर्वोत्तम उपाख्यान है। इसमें इन्द्र और अग्नि राजा शिबि के धर्म की परीक्षा लेने के लिये आये हैं। इसी पर्व में अष्टावक्र का चरित्र भी है। जिसमें बन्दी के साथ जनक के यज्ञ में ब्रह्मार्षि अष्टावक्र ने शास्त्रार्थ का वर्णन है। वह बन्दी वरूण का पुत्र था और नैयायिकों में प्रधान था। उसे महात्मा अष्टावक्र ने बन्दी को हराकर समुद्र में डाले हुए अपने पिता को प्राप्त कर लिया। इसके बाद यवक्रीत और महात्मा रैभ्य का उपाख्यान है। तदनन्तर पाण्डवों की गन्धमादन यात्रा और नारायण श्रम में निवास का वर्णन है। द्रौपदी ने सौगन्धिक कमल लाने के लिये भीमसेन को गन्धमादन पर्वत पर भेजा। यात्रा करते समय महाबाहु भीमसेन ने मार्ग में कदली-वन में महावली पवन नन्दन श्रीहनुमान् जी का दर्शन किया। यही सौगन्धिक कमल के लिये भीमसेन ने सरोवर में घुसकर उसे मथ डाला। वहीं भीमसेन का राक्षसों एवं महाशक्तिशाली मणिमान् आदि यक्षों के साथ घमासन युद्ध हुआ।
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लाक्षागृह दाहपर्व में पाण्डवों की वारणावत-यात्रा के प्रसंग में दुर्योधन के गुप्त षडयन्त्र का वर्णन है। उसका पाण्डवों के पास कूटनीतिज्ञ पुरोचन को भेजने का भी प्रसंग है। मार्ग में विदुरजी ने बुद्धिमान युधिष्ठिर किया, उसका भी वर्णन है। फिर [[विदुर]] की बात मानकर सुरंग खुदवाने का कार्य आरम्भ किया गया उसी लाक्षागृह में अपने पाँच पुत्रों के साथ सोती हुई एक भीलनी और पुरोचन भी जल मरे। यह सब कथा कही गयी है। हिडिम्बवधपर्व में घोर वन के मार्ग से यात्रा करते समय पाण्डवों को हिडिम्बा के दर्शन, महाबली भीमसेन के द्वारा हिडिम्बासुर के वध तथा घटोत्कच के जन्म की कथा कही गयी है। अमिततेजस्वी महर्षि व्यास का पाण्डवों से मिलना और उनकी एक चक्रा नगरी में ब्राह्मण के घर पाण्डवों के गुप्त निवास का वर्णन है। वहीं रहते समय उन्होंने बाकसुर का वध किया, जिससे नागरिकों को बड़ा भारी आश्रर्य हुआ। इसके अनन्तर कृष्ण द्रौपदी और उसके भाई धृष्टद्युम्न की उत्पत्ति वर्णन है। जब पाण्डवों को ब्राह्मण के मुख से यह संवाद मिला, तब वे [[व्यास|महर्षि व्यास]] की आज्ञा से द्रौपदी की प्राप्ति के लिये कौतूहलपूर्ण चित्त से स्वयंवर देखने पांचाल देश की और चल पड़े। चैत्ररथ पर्व में गंगा के तट पर अर्जुन ने अंगार पर्ण गन्धर्व को जीतकर उससे मित्रता कर ली और उसी के मुख से तपती, वसिष्ठ और ओर्व के उत्तम आख्यान सुने। फिर [[अर्जुन]] ने वहाँ से अपने सभी भाईयों के साथ पाञचाल नगर के बड़े-बड़े राजाओं से भरी सभा में लक्ष्य भेध करके [[द्रौपदी]] को प्राप्त किया। यह कथा भी इसी पर्व में है। वहीं [[भीम|भीमसेन]] और अर्जुन ने रणांगण में युद्ध के लिये संनद्ध क्रोधान्ध राजाओं तथा शल्य और कर्ण को भी अपने पराक्रम से पराजित कर दिया। महापति [[बलराम]] एवं भगवान [[श्रीकृष्ण]] ने जब भीमसेन एवं अर्जुन के अपरिमित और अतिमानुष बल वीर्य को देखा, तब उन्हे यह शंका हुई कि कहीं ये [[पाण्डव]] तो नहीं हैं। फिर वे दोनों उनसे मिलने के लिये कुम्हार के घर आये। इसके पश्चात द्रुपदन ‘पाँचों पाण्डवें की एक ही पत्नी कैसे हो सकती है’ इस सम्बन्ध में विचार- विमर्श किया। इसी वैवाहिक-पर्व में पाँच इन्द्रों का अदभुत उपाख्यान और द्रौपदी के देव विहित तथा मनुष्य परम्परा के विपरीत विवाह का वर्णन हुआ है। इस के बाद धृतराष्ट्र ने पाण्डों के पास [[विदुर]] जी को भेजा है, विदुर जी पाण्डवों से मिले है तथा उन्हें श्रीकृष्ण दशर्न हुआ है। इसके पश्चात [[धृतराष्ट्र]] का पाण्डवों को आधा राज्य देना, इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों का निवास करना एवं नारद जी की आज्ञा से द्रौपदी के पास आने जाने के सम्बन्ध में समय निर्धारण आदि विषयों का वर्णन है। इसी प्रसंग में सुन्द और उपसुन्द के उपाख्यान का भी वर्णन है। तदनन्तर एक दिन [[ युधिष्ठिर|धर्मराज युधिष्ठिर]] द्रौपदी के साथ बैठे हुए थे। अर्जुन ने ब्राह्मण के लिये नियम तोड़कर वहाँ प्रवेश किया और अपने आयुध लेकर ब्राह्मण की वस्तु उसे प्राप्त कर दी और द्दढ़ निश्चय करके वीरता के साथ मर्यादा पालन के लिये वन में चले गये। इसी प्रसंग में यह कथा भी कही गयी है कि वनवास के अवसर पर मार्ग में ही अर्जुन और उलूपी का मेल-मिलाप हो गया।
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत पर्वसंग्रहपर्व द्वितीय अध्याय 2 श्लोक 111-142|अगला=महाभारत पर्वसंग्रह पर्व द्वितीय अध्याय 2 श्लोक 180-214}}
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 73-101|अगला=महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 125-142}}
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
 
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अादिपर्व]]
 
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११:४९, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वितीय (2) अध्‍याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 102-124 का हिन्दी अनुवाद

लाक्षागृह दाहपर्व में पाण्डवों की वारणावत-यात्रा के प्रसंग में दुर्योधन के गुप्त षडयन्त्र का वर्णन है। उसका पाण्डवों के पास कूटनीतिज्ञ पुरोचन को भेजने का भी प्रसंग है। मार्ग में विदुरजी ने बुद्धिमान युधिष्ठिर किया, उसका भी वर्णन है। फिर विदुर की बात मानकर सुरंग खुदवाने का कार्य आरम्भ किया गया उसी लाक्षागृह में अपने पाँच पुत्रों के साथ सोती हुई एक भीलनी और पुरोचन भी जल मरे। यह सब कथा कही गयी है। हिडिम्बवधपर्व में घोर वन के मार्ग से यात्रा करते समय पाण्डवों को हिडिम्बा के दर्शन, महाबली भीमसेन के द्वारा हिडिम्बासुर के वध तथा घटोत्कच के जन्म की कथा कही गयी है। अमिततेजस्वी महर्षि व्यास का पाण्डवों से मिलना और उनकी एक चक्रा नगरी में ब्राह्मण के घर पाण्डवों के गुप्त निवास का वर्णन है। वहीं रहते समय उन्होंने बाकसुर का वध किया, जिससे नागरिकों को बड़ा भारी आश्रर्य हुआ। इसके अनन्तर कृष्ण द्रौपदी और उसके भाई धृष्टद्युम्न की उत्पत्ति वर्णन है। जब पाण्डवों को ब्राह्मण के मुख से यह संवाद मिला, तब वे महर्षि व्यास की आज्ञा से द्रौपदी की प्राप्ति के लिये कौतूहलपूर्ण चित्त से स्वयंवर देखने पांचाल देश की और चल पड़े। चैत्ररथ पर्व में गंगा के तट पर अर्जुन ने अंगार पर्ण गन्धर्व को जीतकर उससे मित्रता कर ली और उसी के मुख से तपती, वसिष्ठ और ओर्व के उत्तम आख्यान सुने। फिर अर्जुन ने वहाँ से अपने सभी भाईयों के साथ पाञचाल नगर के बड़े-बड़े राजाओं से भरी सभा में लक्ष्य भेध करके द्रौपदी को प्राप्त किया। यह कथा भी इसी पर्व में है। वहीं भीमसेन और अर्जुन ने रणांगण में युद्ध के लिये संनद्ध क्रोधान्ध राजाओं तथा शल्य और कर्ण को भी अपने पराक्रम से पराजित कर दिया। महापति बलराम एवं भगवान श्रीकृष्ण ने जब भीमसेन एवं अर्जुन के अपरिमित और अतिमानुष बल वीर्य को देखा, तब उन्हे यह शंका हुई कि कहीं ये पाण्डव तो नहीं हैं। फिर वे दोनों उनसे मिलने के लिये कुम्हार के घर आये। इसके पश्चात द्रुपदन ‘पाँचों पाण्डवें की एक ही पत्नी कैसे हो सकती है’ इस सम्बन्ध में विचार- विमर्श किया। इसी वैवाहिक-पर्व में पाँच इन्द्रों का अदभुत उपाख्यान और द्रौपदी के देव विहित तथा मनुष्य परम्परा के विपरीत विवाह का वर्णन हुआ है। इस के बाद धृतराष्ट्र ने पाण्डों के पास विदुर जी को भेजा है, विदुर जी पाण्डवों से मिले है तथा उन्हें श्रीकृष्ण दशर्न हुआ है। इसके पश्चात धृतराष्ट्र का पाण्डवों को आधा राज्य देना, इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों का निवास करना एवं नारद जी की आज्ञा से द्रौपदी के पास आने जाने के सम्बन्ध में समय निर्धारण आदि विषयों का वर्णन है। इसी प्रसंग में सुन्द और उपसुन्द के उपाख्यान का भी वर्णन है। तदनन्तर एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ बैठे हुए थे। अर्जुन ने ब्राह्मण के लिये नियम तोड़कर वहाँ प्रवेश किया और अपने आयुध लेकर ब्राह्मण की वस्तु उसे प्राप्त कर दी और द्दढ़ निश्चय करके वीरता के साथ मर्यादा पालन के लिये वन में चले गये। इसी प्रसंग में यह कथा भी कही गयी है कि वनवास के अवसर पर मार्ग में ही अर्जुन और उलूपी का मेल-मिलाप हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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