"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 159 श्लोक 83-99": अवतरणों में अंतर
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१२:४८, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
एकोनषष्टयधिकशततम (159) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
मामा के ऐसा कहने पर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोण कुमार अश्वत्थामा ने तुरंत ही दुर्योधन के पास जाकर इस प्रकार कहा-। ‘गान्धारीनन्दन! कुरूकुलरत्न! मैं सदा तुम्हारा हित चाने वाला हूँ। तुम मेरे जीते-जी मेरा अनादर करके स्वयं युद्ध में न जाओ। ‘सुयोधन! अर्जुन पर विजय पाने के सम्बन्ध में तुम्हे किसी प्रकार संदेह नहीं करना चाहिये। तुम खडे़ रहो। मैं अर्जुन को रोकूँगा’।
दुर्योधन बोला- द्विजश्रेष्ठ! हमारे आचार्य तो अपने पुत्र की भाँति पाण्डवों की रक्षा करते हैं और तुम भी सदा उनकी उपेक्षा ही करते हो। अथवा मेरे दुर्भाग्य से युद्ध में तुम्हारा पराक्रम मन्द पड़ गया है। तुम धर्मराज युधिष्ठिर अथवा द्रौपदी का प्रिय करने के लिये ऐसा करते हो, इसका मुझे पता नहीं है। मुझ लोभी को धिक्कार है, जिसके कारण किसी से पराजित न होने वाले और सुख भोगने के योग्य मेरे सभी भाई-बन्धु महान् दुख उठा रहे हैं। कृपीकुमार अश्वत्थामा के सिवा दूसरा कौन ऐसा वीर है, जो शस्त्रवेत्ताओं मेंप्रधान, महादेवजी के समान पराक्रमी तथा शक्तिशाली होकर भी युद्ध में शत्रु का संहार नहीं करेगा। अश्वत्थामन्! प्रसन्न होओ। मेरे इन शत्रुओं का नाश करो। तुम्हारे अस्त्रों के मार्ग में देवता और दानव भी नहीं ठहर सकते हैं। द्रोणकुमार! तुम अनुगामियों सहित पान्चालों और सोमकों को मार डालो, फिर तुमसे ही सुरक्षित हो हम लोग अपने शेष शत्रुओं का संहार कर डालेंगे। विप्रवर! ये यशस्वी पान्चाल और सोमक क्रोध में भरकर दावानल के समान मेरी सेनाओं में विचर रहे हैं। इन्हीं के साथ केकय भी हैं। महाबाहो! नरश्रेष्ठ! वे किरीटधारी अर्जुन से सुरक्षित हो मेरी सेना का सर्वनाश न कर डालें। अतः पहले ही उन्हें रोको। शत्रुओं का दमन करने वाले माननीय भाई अश्वत्थामा! तुम शीघ्र ही जाओ। पहले करो या पीछे, यह कार्य तुम्हारे ही वश का है। महाबाहो! तुम पान्चालों का वध करने के लिये ही उत्पन्न हुए हो। यदि तुम तैयार हो जाओ तो निश्चय ही सारे जगत् को पान्चालों से शून्य कर दोगे। पुरूषसिंह! सिद्ध पुरूषों ने तुम्हारे विषय में ऐसी ही बातों कही हैं। वे उसी रूप में सत्य होंगी। अतः तुम सेवकों सहित पान्चालों का वध करो। मैं तुमसे यह सच कहता हूँ कि तुम्हारे बाणों के मार्ग में इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी नहीं ठहर सकते, फिर कुन्ती के पुत्रों और पान्चालों की तो बिसात ही क्या है। वीर! सोमकों सहित पाण्डव संग्राम में तुम्हारे साथ बलपूर्वक युद्ध करने में समर्थ नहीं हैं। यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। महाबाहो! जाओ, जाओ। हमारे इस कार्य में विलम्ब नहीं होना चाहिये। देखो, अर्जुन के बाणों से पीडि़त होकर यह सेना भागी जा रही है। दूसरों को मान देने वाले महाबाहु वीर! तुम अपने दिव्य तेज से पान्चालों और पाण्डवों का निग्रह करने में समर्थ हो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्वके अन्तर्गत घटोत्कचवधपर्व में रात्रियुद्ध के प्रसंग में दुर्योधन का वचनविषयक एक सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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