"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 163 श्लोक 1-17": अवतरणों में अंतर
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त्रिषष्टयधिकशततम (163) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
कौरवों और पाण्डवों की सेनाओं में प्रदीपों (मशालों ) का प्रकाश संजय कहते हैं- राजन्। जिस समय वह भयंकर घोर युद्ध चल रहा था, उस समय सम्पूर्ण जगत् अन्धकार और धूल से आच्छादित था, इसीलिये रणभूमि में खड़े हुए योद्धा एक दूसरे को देख नहीं पाते थे। वह महान् युद्ध अनुमान से तथा नाम या संकेतों द्वारा चलता हुआ उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था। उस समय अत्यन्त रोमाञ्चकारी युद्ध हो रहा था। उसमें मनुष्य, हाथी और घोड़े मथे जा रहे थे। एक ओर से द्रोण, कर्ण और कृपाचार्य ये तीन वीर युद्ध करते थे तथा दूसरी ओर से भीमसेन, धृष्टद्युम्न एवं सात्यकि सामना कर रहे थे। नृपश्रेष्ठ। ये एक दूसरे की सेनाओं में हलचल मचाये हुए थे। उन महारथियों द्वारा उस अन्धकाराच्छन्न प्रदेश में सब ओर से मारी जाती हुई सेनाएँ चारों ओर भागने लगीं। महाराज। वे योद्धा अचेत होकर सब ओर भागते थे और भागते हुए ही उस युद्धस्थल में मारे जाते थे। आपके पुत्र दुर्योधन की सलाह से होने वाले उस युद्ध के भीतर प्रगाढ़ अन्धकार में किंकर्तव्यविमूढ़ हुए सहस्त्रों महारथियों ने एक दूसरे को मार डाला। भरतनन्दन। तदनन्तर उस रणभूमि के तिमिराच्छन्न हो जाने पर समस्त सेनाएँ और सेनापति मोहित हो गये।
धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय। जिस समय तुम सब लोग अन्धकार में डूबे हुए थे और पाण्डव तुम्हारे बल और पराक्रम को नष्ट करके तुम्हें मथे डालते थे, उस समय तुम्हारे और उन पाण्डवों के मन की कैसी अवस्था थी? संजय जब कि सारा जगत् अन्धकार से आवृत था, उस समय पाण्डवों को अथवा मेरी सेना को कैसे प्रकाश प्राप्त हुआ।
संजय ने कहा- राजन्। मतनन्तर जितनी सेनाएँ मरने से बची हुई थीं, उन सबको तथा सेनापतियों को आदेश देकर दुर्योधन ने उनका पुनः व्यूह-निर्माण करवाया। राजन्। उस व्यूह के अग्रभाग में द्रोणाचार्य, मध्यभाग में शल्य तथा पार्श्वभाग में अश्वत्थामा और शकुनि थे। स्वयं राजा दुर्योधन उस रात्रि के समय सम्पूर्ण सेनाओं की रक्षा करता हुआ युद्ध के लिये आगे बढ़ रहा था। पृथ्वीनाथ। उस समय दुर्योधन ने समस्त पैदल सैनिकों से सान्त्वनापूर्ण वचनों में कहा- 'वीरों। तुम सब लोग उत्तम आयुध छोड़कर अपने हाथों में जलती हुई मशालें ले लो'। नृपश्रेष्ठ दुर्योधन की आज्ञा पाकर उन पैदल सिहाहियों ने बड़े हर्ष के साथ हाथों में मशालें ले लीं। आकाश में खड़े हुए देवता, ऋषि, गन्धर्व, देवर्षि, विद्याधर, अप्सराओं के समूह, नाग, यक्ष, सर्प और किन्नर आदि ने भी प्रसन्न होकर हाथों में प्रदीप ले लिये। दिशाओं की अधिष्ठात्री देवियों के यहाँ से भी सुगन्धित तैल से भरे हुए दीप वहाँ उतरते दिखायी दिये। विशेषतः नारद और पर्वत नामक मुनियों ने कौरव और पाण्डवों की सुविधा के लिये वे दीप जलाये थे। रात के समय अग्नि की प्रभा से वह सेना पुनः विभागपूर्वक प्रकाशित हो उठी। बहुमूल्य आभूषणों तथा सैनिकों पर गिरने वाले दीप्तिमान् दिव्यास्त्रों से भी वह सेना बड़ी शोभा पा रही थी। एक-एक रथ के पास पाँच-पाँच मशालें थीं। प्रत्येक हाथी के साथ तीन-तीन प्रदीप जलते थे। प्रत्येक घोड़े के साथ एक महाप्रदीप की व्यवस्था की गयी थी। पाण्डवों तथा कौरवों के द्वारा इस प्रकार व्यवस्थापूर्वक जलाये गये समस्त प्रदीप क्षणभर में आपकी सारी सेना को प्रकाशित करने लगे।
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