"महाभारत वन पर्व अध्याय 206 श्लोक 1-15" के अवतरणों में अंतर

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१३:३१, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

षडधिकद्विशततम (206) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व )

महाभारत: वन पर्व: षडधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

कौशिक ब्राह्मण और पतिव्रता के उपाख्‍यान के अन्‍तर्गत ब्राह्मणों के धर्म का वर्णन मार्कडेयजी कहते हैं-भरतनन्‍दन । कौशिक नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण था । जो वेद का अध्‍यन करने बाला, तपस्‍या का धनी और धर्मात्‍मा था। वह तपस्‍वी ब्राह्मण सम्‍पूर्ण द्विजातियों में श्रेष्‍ठ समझा जाता था । द्विज श्रेष्‍ठ कौशिक ने सम्‍पूर्ण अगड़ों सहित वेदों और उपनिषदोंका अध्‍ययन किया था। एक दिन की बात है, वह किसी वृक्ष के नीचे बैठकर वेद पाठ कर रहा था । उस समय उस वृक्ष के उपर एक बगुली छिपी बैठी थी। उसने ब्राह्मण देवता के उपर बीट कर दी । यह देख ब्राह्मण क्रोधित हो गया और उस पक्षी की ओर दृष्टि डालकर उसका अनिष्‍ट चिन्‍तन करने लगा। उसने अत्‍यन्‍त कुपित होकर उस बगुली को देखा और उसका अनिष्‍टचिन्‍तन किया था, अत: वह पृथ्‍वी पर गिर पड़ी । उस बगुली को अचेत एवं निष्‍प्राण होकर पड़ी देख ब्राह्मण का ह्दय द्रवित हो उठा । उसे अपने इस कुकृत्‍य पर बड़ा पश्‍यताप हुआ । वह इस प्रकार शोक प्रकट करता हुआ बोला-‘ओह। आज क्रोध और आसक्ति के वशीभूत होकर मैने यह अनुचित कार्य कर डाला । मार्कण्‍डेयजी कहते हैं-भरतश्रेष्‍ठ । इस प्रकार बार बार पछताकर वह विद्वान ब्राह्मण गांव में भिक्षा के लिये गया। उस गांव में जो लोग शुद्ध और पवित्र आचरण वाले थे, उन्‍हीं के घरों पर भिक्षा मांगता हुआ वह एक ऐसे घर पर जा पहुंचा, जहां पहले भी कभी भिक्षा प्राप्‍त कर चुका था। दरवाजे पर पहुंचकर ब्राह्मण बोला-‘भिक्षा दें । भीतर से किसी स्‍त्री ने उत्‍तर दिया ‘ठहरो । ( अभी लाती हूं ) राजन् । वह घर की मालकिन थी, जो जूंठै बर्तन मांज रही थी । ज्‍यों ही वह बर्तन साफ कर‍के उधर से निवृत हुई, त्‍यों ही उसके पति देव सहसा घर पर आ गये । भरत श्रेष्‍ठ । वे भुख से अत्‍यन्‍त पीडित थे । पति को आया देख उस श्‍याम नेत्रों वाली पतिव्रता ने ब्राह्मण को तो उसी दशा में छोड़ दिया और अत्‍यन्‍त विनीत भाव से वह पति की सेवा में लग गयी । पानी लाकर उसने पति के पैर धोये, हाथ मुंह धूलाये और बैठने को आसन दिया । फिर सुन्‍दर स्‍वादिष्‍ठ भक्ष्‍य भोज्‍य पदार्थ परोसकर वह पति को भोजन कराने लगी। युधिष्ठिर। वह सती स्‍त्री प्रतिदिन पति को भोजन कराकर उनके उच्छिष्‍ट को प्रसाद मानकर बड़े आदर और प्रेम से भोजन करती थी । वह पति को देवता मानती थी और उनके विचार के अनुकूल ही चलती थी। उसका मन कभी परपुरुष की ओर नहीं जाता था। वह मन, वाणी और क्रिया से पतिपरायणा थी । अपने ह्दय की समस्‍त भावनाएं, सम्‍पूर्ण प्रेम पति के चरणों में चढ़ाकर वह अनन्‍य भाव से उन्‍हीं सेवा में लगी रहती थी। सदाचार का पालन करती, बाहर-भीतर से शुद्ध पवित्र रहती, घर के काम काज को कुशलता पूर्वक करती और कुटुम्‍ब के सभी लोगों का हित चाहती थी । पति के लिये जो हितकर कार्य जान पड़ता, उसमें भी वह सदा संलग्र रहती थी । देवताओं की पूजा, अतिथियों के सत्‍कार, भृत्‍यों के भरण-पोषण और सास ससुर की सेवा में भी वह सर्वदा तत्‍पर रहती थी । अपने मन और इन्द्रियों पर वह निरन्‍तर पूर्ण संयम रखती थी ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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