"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 132 श्लोक 14-22" के अवतरणों में अंतर

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१४:०५, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वात्रिंशदधिकशततम (132) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्वात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 14-22 का हिन्दी अनुवाद

जैसे मनोहर आकृतिवाले, सुशिक्षित तथा अच्‍छी तरह से बोझ्‍ ढोंने में समर्थ नयी अवस्‍था के दो बैल कंधो भार उठाकर उसे सुन्‍दर ढंग से ढोते हैं, उसी प्रकार राजा को भी अपने राज्‍य का भार अच्‍छी तरह संभालना चाहिये। जैसे-जैसे आचरणों से राजा के बहुत-से दूसरे लोग सहायक हों, वैसे ही आचरण उसे अपनाने चाहिये। धर्मज्ञ पुरुष आचारको ही धर्म का प्रधान लक्षण मानते हें। किंतु जो शंख और लिखित मुनि के प्रेमी हैं- उन्‍हीं के मत का अनुसरण करनेवाले हैं, वे दूसरे-दूसरे लोग इस उपर्युक्‍त मत (ॠत्विक् आदि को दण्‍ड न देने आदि) को नहीं स्‍वीकार करते हैं। वे लोग ईर्ष्‍या अथवा लोभ से ऐसी बात नहीं कहते हैं। (धर्म मानकर हीकहते है)। शास्‍त्र-विपरीत कर्म करनेवाले को दण्‍ड देने की जोबात आयी हैं, उसमें वे आर्षप्रमाण भी देखते हैं[१]। ॠषियों के वचनों के समान दूसरा कोई प्रमाण कहींभी दिखायी नहीं देता। देवताभी विपरीत कर्म में लगे हुए अधम मनुष्‍य को नरकों में गिराते हैं, अत: जो छल से धन प्राप्‍त करता हैं, वह धर्म से भ्रष्‍ट हो जाता है। ऐश्‍वर्य की प्राप्ति के जो प्रधान कारण हैं, ऐसे श्रेष्‍ठ पुरुष जिसका सब प्रकार से सत्‍कार करते हैं तथा हदय से भी जिसका अनुमोदन होता हैं, राजा उसी धर्म का अनुष्‍ठान करे। जो वेदविहित, स्‍मृतियों द्वारा, सज्‍जनों द्वारा सेवित तथा अपने को प्रिय लगनेवाला धर्म हैं, उसे चतुर्गुणसम्‍पन्‍न माना गया है। जो वैसे धर्म का उपदेश करता हैं, वही धर्मज्ञ है।सर्प के पदचिह्न की भांति धर्म के यथार्थ स्‍वरुप को ढूंढ निकालना बहत कठिन है।जैसे बाण से बिंधे हुए मृग का एक पैर पृथ्‍वी पर रक्‍त कालेप कर देने के कारण व्‍याध को उस मृग के रहने के स्‍थान को लक्षित कराकर वहां पहुंचा देता हैं, उसी प्रकार उक्‍त चतुगुणसम्‍पन्‍न धर्म भी धर्म के यथार्थ स्‍वरुप की प्राप्ति करा देता है। यधिष्ठिर ! इस प्रकार श्रेष्‍ठ पुरुष जिस मार्ग से गये हैं, उसी पर तुम्‍हें भी चलना चाहिये। इसी को तुम राजर्षियों का सदाचार समझो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तगर्त आपद्धर्मपर्व में राजर्षियों का चरित्र नामक एक सौ बत्तीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यथा-गुरोरप्‍यवलिप्‍तस्‍य कार्याकार्यमजानत: ।उत्‍पथं प्रतिपन्‍नस्‍य कार्यं भवति शासनम्।। अर्थात् घमंड में आकर कर्तव्‍य और अकर्तव्‍य का विचार न करते हुए कुमार्ग पर चलने वाले गुरु को दण्‍ड देना आवश्‍यक है।

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